मन का जीवन

कहते है, बहती नदी सुंदर और आकर्षक लगती है, कुछ ऐसा ही अपना जीवन होना चाहिए। शांत नदी गंभीर और सौम्य होते हुए भी उदास और अनाकर्षक दिखती है। ज्ञान जब स्थिर हो जाता है, तो सतह की सारी गन्दगी उसे सक्रिय नहीं होने देती। मानव जीवन का अगर कोई आकर्षक पहलू है तो वो है, “सक्रियता”। बेहतर जीवन शैली में अभी भी हमारा चिंतन का विषय जीवन के प्रति हमारा अपना दृष्टिकोण, जिसको हर समय गतिमय ऊर्जा की जरुरत रहती है, कहना नहीं होगा ऊर्जा हर समय गतिमय ही रहती है। एक बात हम कभी नहीं भूल सकते ,हमारी ऊर्जा को शक्तिपूर्ण होने के लिए विश्राम की जरुरत होती है, नहीं तो दिशा-भ्रमित होने की आंशका बनी रहेगी।

सफलता से असफलता की कोई दुश्मनी नहीं है, असफलता,हमारी चेतना को सोने नहीं देती, एक हद तक सफलता की वो शुभचिन्तक ही है। जीवन की रफ़्तार समय के अनुरुप साधनों के विकास पर भी अब निर्भर करने लगी है। बल की जगह बुद्धि आज राज कर रहीं है, शरीर से ज्यादा आज दिमाग काम करता है। जब हालात बदलते है, तो सफलता का रुप भी बदल जाता है, कार्य के अनुसार सफलता और असफलता की समय सीमा भी आजकल तय है। आज किसी भी के पास इतना समय भी नहीं है, कि पराये दर्द को महसूस कर सके, क्योंकि उनकी स्वयं की जीवन शैली दर्द की निर्माता बन गई।

आखिर हमारी लाचारी हमने खुद स्वीकार की है, स्वतंत्रता के नाम पर, जबकि स्वतंत्रता की सीमा रेखा होती है, इस सीमा रेखा को पार करने का मतलब नैतिकता और प्राकृतिक संस्कारों का उलंघन होता है। सवाल उठ सकता है, प्राकृतिक संस्कारों की परिभाषा क्या है ? इस सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है, जन्मतें ही जो तत्वे हर मानव में मौजूद रहते है, जिनकी समझ उसे अपने आप आ जाती है, उसे उन्हें समझने में बाहरी ज्ञान की जरुरत नहीं रहती, उन्हें हम प्राकृतिक संस्कार कहते है, मसलन भूख, ये एक क्रिया है, जो जन्मते ही मानव जान लेता है। भूख के भी संस्कार होते है, वो अपनी सीमा से ज्यादा तृप्त होने से बचती है, वो जानती है, उसकी अति स्वतंत्रता तन को तकलीफ दे सकती है। परन्तु मन उसका विपरीत तत्व है, वो अति स्वतंत्रता को पसन्द करता है। मन का दूसरों की तकलीफ आराम से कोई सरोकार नहीं जब तक वो शिक्षित न हों। बेहतर जीवन ‘स्वतंत्रता’ को पसन्द न करे, यह नही हो सकता परन्तु वो सीमा के अंदर ही रहकर उसका उपयोग करता है। हम सड़कों पर कई जगह यह पढ़ सकते है, कि “सावधानी हटी, दुर्घटना घटी” यही बात बेहतर जीवन शैली स्वतंत्र जीवन पर कहना चाहती है। ज्यादातर देखा जाता है, कभी कोई छोटी सी सफलता आदमी को शालीनता से दूर कर उसे अभिमानी बना देती है, याद रखने की बात है, यहीं से क्षमताओं का दुरुपयोग शुरु हो सकता, अतः किसी भी सफलता को जीवन का माप दण्ड तय नहीं करने देना चाहिए। हमारा व्यवहारिक नजरिया शालीन और शांत हो, यही हमारे व्यक्तित्व को स्थिरता प्रदान करेगा।

कभी कभी हम ऐसी विषम स्थितियों से गुजरते है, जब हमारा कार्य करने में और दृष्टिकोण दोनों का अंतर सामने दिखाई पड़ने लगता है। यह हमारी जीवन शैली की सबसे कमजोर कड़ी होगी, शायद यह व्यक्तित्व निर्माण में विपरीत भूमिका भी निभाये। भारतीय परिवेश की बात करे तो परिवार के प्रति हमारी चिंतन शैली भावुकता से इतनी भर जाती है, कि सही तथ्य को जगह ही नहीं मिलती। इसका एक प्रमुख कारण अपनी भविष्य असुरक्षा को ज्यादा महत्व देना, इससे हमारी वर्तमान की कार्यशैली और स्वास्थ्य दोनों ही प्रभावित होते रहते है। दूसरी बात, पता नहीं, क्यों किसी पारिवारिक सदस्य की उद्दण्डता भी आदमी के चिंतन और नजरिये में प्रभावकारीक विपरीतता को स्वीकार करने को मजबूर कर देती है। तथ्यों पर अगर हमारा विश्वास हो, तो मान कर चलिए, हमारा व्यक्तित्व इस से दबता है, समस्या का कोई उचित समाधान इसमे नजर नहीं आता। बेहतर जीवन शैली की यही सलाह होगी कि परिस्थितयों का मूल्यांकन कर ऐसी स्थिति में ‘पूर्ण सत्य’ का सहारा लेना उचित होगा। एक रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार संसार, जिसमे हमारे देश भी सम्मलित है, कि कम से कम, दस आदमी में एक और पांच महिलाओं में एक, मानसिक गड़बड़ या मानसिक अव्यस्था (depression) के शिकार होते है, जो उनके दैनिक जीवन को कमजोरी और शरीर को अस्वस्थता देती है, उससे वही नहीं देश, समाज और हम सभी कभी न कभी प्रभावित हो सकते है।

भारतीय सन्दर्भ में मानसिक अव्यवस्था, ज्यादातर परिवारों में बिगड़ती शासन व्यवस्था तथा कमजोर पड़ते संस्कारों और ‘विचारों’ में नई पीढ़ी तथा पुराणी पीढ़ी के आपसी कम तालमेल का नतीजा ज्यादा है। मानसिक अव्यस्था में ज्यादातर देखा जाता है, कि हमारी भूख कम हो जाती है, शरीर में शीतलता का प्रवाह तेजी से होने लगता है। इसके अलावा रात को नींद देर तक नहीं आती तथा सुबह देर तक सोने की आदत पड़ जाती। 

आज हम बेहतर जीवन शैली का सबसे अहम सवाल, जो शायद सबसे महत्वपूर्ण भूमिका व्यक्तितत्व निर्माण के दौरान निभाता है, कि हमारा नजरिया जिंदगी के प्रति क्या है ? इस पर चर्चा करते है, दोस्तों, इसे हम अपने आपसे यों भी पूछ सकते है, कि अपनी जिंदगी के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या है ? तय यही है, की अभी हम जिस तरह से जी रहे, वही सत्य है। जीवन के हजारों दृष्टिकोणों का मूल्यांकन समय समय पर हमारे लिए जरूरी है, परन्तु ऐसा हम नहीं करते। जितना समय हम निर्जीव साधनों की देख रेख में लगाते है, उस से कम समय शायद हम अपना आत्म निरीक्षण में लगाते है। जीवन कोई साधारण बात नहीं है, हमारे शरीर का हर अंग अपनी निश्चित कार्य प्रणाली पर निर्भर है। हम हमारी सारी आत्मिक और शारीरिक अनभूतियों से ही, उसे आनन्द और निराशा के कई रंगों के रस का रस्वादन कराते है।

सत्य है, जीवन एक है, पर दृष्टिकोण अनेक है। यह भी तय है, नजरिया बदलता है, इंसान के जीवन का स्वरुप भी बदल जाता है। एक आम इंसान अपनी सोच और आस्था से कमजोर होते जीवन को मजबूती दिला सकता है। बड़े बड़े अविष्कारों के पीछे हमने वैज्ञानिकों के दृष्टिकोणों को बार बार बदलते सुना है, तब जाकर उन्होंने बार बार उनमे सुधार किये है। हकीकत, यही कहती है, कि हम दूसरों के गुणों और अवगुणों का अवलोकन कर लेते है, पर क्या हमनें कभी समय निकाल खुद का निरीक्षण किया, शायद ज्यादातर उत्तर नहीं में ही होगा। हम विशिष्ठता से स्नेह जरुर रखते है, पर यह नहीं जानते की उत्तमता की तलाश अपने अंदर से शुरु करनी पड़ती है। जीवन के हर एक नजरिया में लचीलापन और गंभीरता का समावेश होना जरूरी है । सिद्धांत और सत्य के लिए जीने वाले सत्यकाम आज की निरर्थक आर्थिक और आधुनिक समाज की देन नहीं हो सकता। सच, यही है, हम व्यवहारिक और राजनीति युक्त सम्बंधित समाज का हिस्सा है। इस बदले हुए परिवेश में नैतिकता की स्थिति काफी कमजोर हैं और उस पर पूर्णतिया निर्भर रहना, सांसारिक शब्दों में असफलता को बुलावा देना है। समाज के ज्ञानी सुधारकों को नैतिकता की चट्टान से फिसलते, हम सब ने देखा है।

बेहतर जीवन शैली सबसे पहले यह सुझाव देगी, कि समय काल के अनुरुप हम जीवन और उसके विचारों में सक्षमता पूर्वक परिवर्तन स्वीकार करते रहेंगे। यह भी समझने कि बात है, रीति रिवाजों के नाम पर प्रदर्शित आधुनिकता से सजे आडम्बरों को हम रोक नहीं सकते, पर वक्त की जरुरत के नाम पर उनको बढ़ावा देने से हम बचे, यही सही है। बात वही है, नजरिया समाज के प्रति बदलना होगा। आज के समाज से पहले के समाज की तुलना वर्तमान से करके जी तो सकते है, पर उस जीने में सार्थकता की कमी रहेगी। आधुनिक युग के साधनों ने जगह की दूरी जरुर कम कर दी, पर मन की दूरियां बढ़ा दी।बाहरी प्यार को इतना सुंदर बना दिया की भीतर की कालिख को देखना मुश्किल हो गया। हमें इसी धरातल पर अगर जीवन को बेहतर बनाना है, तो यथार्थ को स्वीकृति देनी ही होगी। यह भी समझने की बात है, कि सब समय सब बातें सही हो,यह जरुरी नहीं है। कुछ बातें पुराने समय की अच्छाइयाँ हो सकती है, पर आज वो बुराइयों के रुप में जानी जा सकती है।

हम पर्दा प्रथा को ही ले, कुछ समय पहले इसे संस्कारों में गिना जाता था, आज इसकी बुराइयों में पहचान करायी जाती है। समय बदलता है, तो जीवन बदलता है, परन्तु रीति रिवाजों और सामाजिक नियमों में उस अनुपात में बदलाव आने में समय लगता है। आज भारतीय समाज का बदलाव बाहर से जितना आकर्षक दीखता है, वाकई क्या ऐसा है ? यह एक अनुत्तरित जिज्ञासा ही होगी, अगर हम क्षेत्र के अनुसार इसका अनुसंधान नहीं करते। किसी भी समाज का विश्लेषण उसकी आर्थिक उन्नति की भूमिका में ही अगर किया जाय, यह एक अर्द्धसत्य हीं होगा। जीवन में अर्थ (धन)के महत्व को बेहतर जीवन शैली कभी नहीं नकारती, परन्तु उससे होने वाले नकारत्मक व्यवहार पर अपनी प्रतिक्रिया जरुर कर सकती है, क्योंकि बिना व्यवहार कोई शैली तैयार नहीं हो सकती। अर्थ के बढ़ने से अगर जीवन को सकारत्मक चिंतन नहीं मिलता तो अर्थ बिना अर्थ ही जीवन को समाप्त कर देगा। अर्थ को अगर कर्म के साक्षेप देखा जाय तो हिन्दू शास्त्रों के अनुसार चार पुरुषार्थों में एक माना गया है, बाकी तीन धर्म, काम और मोक्ष है। सही कामों से हम सीमित धन प्राप्त करते है, तो उसका मानसिक स्वास्थ्य पर स्वच्छ और सकारत्मक प्रभाव पड़ता है, जो जीवन को सही गति देता है। हमे यह चिंतन जरुर करना चाहिए की धन के प्रति हमारा नजरिया अति लालसा से तो प्रभावित तो नहीं है, ना। अगर हम कहें हां, तो शायद हम ऊपर से भव्य, भीतर से खोखला जीवन जी रहे है। इससे न तो अपना भला होगा, न ही परिवार और समाज का। जिंदगी से अगर कभी अगर हम बात करे तो शायद वो सबसे पहले यहीं कहेगी की ” हां, मैं शांत और सही ढंग से जीना चाहूंगी, 

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