विवाह को विदा
मेरा ब़स चले तो मैं दुनिया से विवाह को विदा कर देना चाहुंगा। और उसका कारण आप लोग जान कर चकित होओगे। उसका कारण यह है कि अगर दुनिया से विवाह विदा हो जाए, तो इस दुनिया को धार्मिक होने के लिए रास्ता खुल जाए। विवाह के कारण यह भ्रांति बनी रहती है कि इस स्त्री में मैं उलझा हूं, इससे फंसा हूं, इसलिए वासना तृप्त नहीं हो रही! काश मुझे मौका होता, इतनी सुंदर स्त्रियां चारों तरफ घूम रही हैं, तो कब की वासना तृप्त हो गई होती।
वह भ्रांति है। मगर वह भ्रांति बनी रहती है विवाह के कारण। दूसरे की स्त्री सुंदर मालूम पड़ती है। दूसरे के बगीचे की घास हरी मालूम पड़ती है। और दूसरे की स्त्री जब घर से बाहर निकलती है, तो बन-ठन कर निकलती है, तुम्हें तो उसका बाहरी आवरण दिखाई पड़ता है। तुम्हारी स्त्री भी दूसरे को सुंदर मालूम पड़ती है
विवाह ने एक भ्रांति पैदा कर दी है। विवाह ने खूब धोखा पैदा कर दिया है। विवाह से ज्यादा अधार्मिक कृत्य दूसरा नहीं है, मगर धर्म के नाम पर चल रहा है! अगर लोग मुक्त हों, तो जल्दी ही यह बात उनकी समझ में आ जाए कि न तो कोई पुरुष किसी स्त्री की वासना तृप्त कर सकता है, न कोई स्त्री किसी पुरुष की वासना तृप्त कर सकती है। लेकिन यह अनुभव से ही समझ में आ सकता है। जब एक से ही बंधे रहोगे तो यह कैसे समझ में आएगा?
और जिस दिन यह समझ में आ जाता है, उस दिन जीवन में ध्यान की शुरुआत है। उसी दिन जीवन में क्रांति है। उसी दिन तुम वासना के पार उठना शुरू होते हो। ध्यान है क्या? ध्यान यही है कि मन सिर्फ दौड़ता है, भरमाता है, भटकाता है मृग-मरीचिकाओं में—और आगे, और आगे...। क्षितिज की तरह, ऐसा लगता है—अब तृप्ति, अब तृप्ति, जरा और चलना है; थोड़े और! और क्षितिज कभी आता नहीं, मौत आ जाती है। तृप्ति आती नहीं, कब्र आ जाती है। ध्यान इस बात की सूझ है कि इस दौड़ से कुछ भी नहीं होगा। ठहरना है, मन के पार जाना है, मन के साक्षी बनना है।
अगर सच में ही चाहते हो कि वासना से तृप्ति, मुक्ति, वासना के जाल से छुटकारा हो जाए, तो न तुम्हारी पत्नी दे सकी है, न किसी और की पत्नी दे सकेगी, न कोई वेश्या दे सकेगी, कोई भी नहीं दे सकता है। यह कृत्य तो तुम्हारे भीतर घटेगा। यह महान अनुभव तो तुम्हारे भीतर शांत, मौन, शून्य होने में ही संभव हो पाता है।
मगर जब तक यह न हो, तब तक मैं दमन के पक्ष में नहीं हूं। मैं कहता हूं, तब तक जीवन को जीओ, भोगो। उसके कष्ट भी हैं, उसके क्षणभंगुर सुख भी हैं; कांटे भी हैं, फूल भी हैं वहां; दिन भी हैं और रातें भी हैं वहां—उन सबको भोगो। उसी भोग से आदमी पकता है। और उसी पकने से, उसी प्रौढ़ता से, एक दिन छलांग लगती है ध्यान में।
( किसी को अगर मेरी बात कहने का अंदाज गलत लगा हो तो माफी चाहुंगा । लेकिन मन की बात कहना भी तो कई बार बहुत जरूरी हो जाता है । )
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