किशोर चोधरी - ये जिवन है ।
उदासी को तोड़ने के लिए जून महीने में की गई यात्रा को लिख रहा हूँ. बात लम्बी है तो टुकड़े भी कुछ ज्यादा है. दिल में सुकून हो तो पढ़िए न हो तो जरुर पढ़िए क्योंकि दुनिया सिर्फ़ वैसी ही नहीं है जैसी हमें दिख रही है.
॥ गतिश्च प्रकृति रसभवस्थान देश काल चापेक्ष वक्तव्याः ॥
लय की निश्चित चाल के विभिन्न रूपों से जो विविधता और अनचीन्हा सौन्दर्य उत्पन्न होता है, वह आनंददायी है. इस गति को हम जीवन भी कहते हैं. गति से भावव्यंजना होती है. प्राणियों में भिन्न प्रकार के रसों की निष्पत्ति से क्रियाएं शिथिल अथवा द्रुत हो जाया करती है. क्रोध, लोभ, सुख, प्रेम, भय आदि से प्रेरित होकर हमारे भीतर अत्यधिक प्रतिक्रिया होती है. घर में गति न्यूनतम होती है. यह ठहराव का स्थल है. इसलिए घर से बाहर आते ही मन और मस्तिष्क की गति परिवर्तित हो जाती है.
मैं बरसों बाद इस तरह के अनुभव में था. सुबह के वक़्त ठीक से आंख खुली न थी और रेल के पहियों के मद्दम शोर में आस-पास बच्चों की ख़ुशी लहक रही थी. खिड़की से बाहर सोने के रंग की रेत के धोरे पीछे छूटते जा रहे थे. बरसों से मेरे मन में बसा रहा कैर, खेजड़ी, आक और बुवाड़ी के मिश्रित रंग रूप का सौन्दर्य मुझे बांधे हुआ था. सूरज की पहली किरणों के साथ गोरी गायें और चितकबरी बकरियां दिखती और क्षण भर में खो जाती. मुस्कुरा कर बच्चों और पत्नी को देखता और फ़िर से गति से उपजे ख़यालों में उलझ जाता.
रेत जो पीछे की ओर भाग रही थी. उसकी गति में मेरा मन अशांत हुआ जाता. आगत के संभाव्य अंदेशों को बुनते हुए, उनके संभावित हल गढ़ता जाता. एक बड़ी होती बेटी और छोटे बेटे के साथ होने से कई तरह की निर्मूल आशंकाएं भी गति में थी. खिड़की से फ़िर बाहर देखता तो मरुधरा की इस माटी के लिए वंदना जैसे श्लोक मेरे मस्तिष्क में फूटते जाते. मैं उम्र भर इस रेत के गुण गा सकता हूँ कि इस जीवनदायिनी ने अपनी गोद में मेरे सारे सुख-दुःख समेटे फ़िर भी सदियों से इतनी ही निर्मल बनी रही. इस रेगिस्तान से कितने काफ़िले गुज़रे और कितने लुटेरों ने अंधे धोरों की घाटियों में लूट के जश्न मनाये. कितनी ही प्रेम कथाएं रेत से उपजी और उसी में निराकार होकर खो गयी. तोपचियों और सिपहसालारों को अपनी तोपों और बारूद के असलाह को खींचते समय इसरेत के आगे हार कर थक जाना पड़ा. इस रेत ने मनुष्य को सागर से बूँद कर के सुखा दिया.दुनिया जीतने को निकले गाज़ी पानी के लिए भटकते हुए मारे गए. उनको भी इस रेत नेअपने आँचल में जगह दी. एक औरत ने अपने गर्भ में पल रहे बादशाह अकबर के लिए इसीरेत से हौसला माँगा था कि वह इसके पार जा सके. आँधियों से प्रार्थनाएं की थी वे रुक कर इसअजन्मे का साथ दें. ग़ज़नी ने धर्म के प्रसार और काफ़िरों को नेस्तनाबूद करने के अभियान मेंअल्लाह कह कर इसी रेत के आगे सर झुका लिया था.
मेरे लिए ये रेत के धोरे दुनिया के स्वर्ग कहे जाने वाले देशों से अधिक सुन्दर हैं. मुझे इनकी बलखाती लहरों से जागता स्वर्णिम जादू बहुत लुभाता है. दूर दूर तक एकांत और असीम शांति. बजती हुई हवा के रहस्यमय संगीत की मदहोशी और तमाम दुखों के बावजूद अनंत सुख भरा जीवन. शोर की दुनिया को नापसंद करने वाले लोगों की इस आरामगाह में लाल मिर्च और बाजरे की रोटी परमानन्द है. जेठ महीने की तपन आदम के हौसले के आगे बहुत छोटी जान पड़ती है. मैं ऐसा ही सोचते हुए जया को देखता और फ़िर से सोचता कि वे मुसाफ़िर किस चीज़ के बने थे जिन्होंने दुनिया छान मारी.
बाड़मेर से कोई दो सौ किलोमीटर के फ़ासले पर बसी मारवाड़ की राजधानी जोधपुर तक आते हुए हर जगह ऐसी जान पड़ती है कि बरसों से इसे देखा है. मेरी तमाम यात्राओं का ये इकलौता मार्ग रहा है अगर इसके सिवा कोई रास्ता है तो वो गुजरात की ओर जाता है. रेगिस्तान के इस भारतीय छोर पर जीवन, कला और धर्म को समझने के लिए एक पूरी उम्र कम है. मेरे दादा को रोज़गार के लिए सिंध मुफ़ीद था. सिंधियों और पंजाबियों को यहाँ का तम्बाकू पसंद था. यहाँ पहनावे और भाषा के छोटे छोटे बहुतेरे रूपों में कोई एक संस्कृति नहीं झलकती. बहुत से हिन्दू रोजे रखते है और मुसलमान मांगणियार गायक देवी माता और कृष्ण भजनों के बिना अपने गायन की शुरुआत नहीं करते. लोकदेवता बाबा रामदेव का आशीर्वाद पाना पड़ौसी मुल्क में आज भी एक बड़ी हसरत है. कुछ धूप जलाते रहे कुछ उनको पीर कह कर लोबान की गंध को दिल में बसाये हुए आते रहे.
मुझे क्या चाहिए सफ़र के लिए ? बस थोड़ा सा हौसला और बहुत सारी कॉफ़ी. जोधपुर में रेल डिब्बे को मुसाफ़िर किसी खैरात की तरह बेरहम होकर लूट लेना चाहते हैं लेकिन मैं अपने छोटे भाई के हाथ से कॉफ़ी का थर्मस ले लेता हूँ. भाई पुलिस महकमे का अफ़सर है मगर ज़माने के रंग को देखते हुए दिल से कई तरह की हिदायतें देता है. मैं चाहता हूँ कि बच्चों के साथ सफ़र करना
रेल के डिब्बे में लौटते ही पाया कि हम चार लोगों के बैठने के लिए आरक्षित स्थान पर जोधपुर के भाभाओं की स्त्रियाँ और बच्चे बैठे थे. उन्होंने हमें इस तरह जगह दी जैसे सत्यनारायण की कथा में बैठने का स्थान क्षुद्र और कथा का प्रयोजन विशिष्ट होता है. बेलगाम बढती हुई आबादी के बोझ तले दबे हुए चिंचिया रहे हिन्दुस्तान का एक छोटा रूप रेल के डिब्बे में समा आया था. मुद्रास्फीति के समक्ष घुटने टेक चुके भारतीय रुपये की तरह वातानुकूलन यन्त्र ने भी अपना असर खो दिया. मेरे देश के आवागमन की जीवन रेखा भारतीय रेल पर हर सैकेंड इतना ही बोझ लदा रहता है.
हमारे तीसरे दर्ज़े के इस डिब्बे की दो सीटों पर दस जानें फंस चुकी थी. इस गाड़ी में अगर दूसरा या पहला दर्ज़ा होता तो मैं अवश्य उन्ही को चुनता. मेरे बच्चे इन अतिक्रमणियों को देख कर नाखुश थे लेकिन हर गरीब मुल्क में आदम कौम का कायदा यही है कि वे पहले बहस मुबाहिसे में उलझते हैं और बाद में अपने सहयात्रियों को भोजन की मनवार में लग जाते हैं. मैंने अपने इसी एक छोटे से अनुभव से बच्चों को राजी कर लिया कि इनमें से कुछ की सीट्स अगले स्टेशन तक कन्फर्म हो जाएगी.
बाहर की तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं होना था कि कालका एक्सप्रेस के नाम से जानी जाने वाली ये रेल हिंदुस्तान के पूरे रेगिस्तान के बीच छः सौ किलोमीटर गुजरती है. बस एक जैसलमेर अलग छूट जाया करता है. मगर उसकी तस्वीर भी दिल में बसी रहती है. सत्यजीत रे को रेगिस्तान की अनंत मरीचिका में भी सशरीर खड़े जिस सोनार किले से मुहब्बत थी, उसकी छवि को मेहरानगढ़ फोर्ट फ़िर से याद दिला देता है. सफ़र है तो चीज़ें पीछे छूटती ही हैं, कुछ यादें भी कभी कभी छूट जाया करती है. खिड़की के पार छांग दिए गए पेड़ दिखते हैं. उन पर हल्की सी हरीतिमा फूटती हुई जान पड़ती है. मैदानी बालू रेत की जगह कुछ गहरे रंग की मिट्टी के सपाट खेत रेल के साथ होड़ करते रहते हैं.
बंद रेलवे क्रोसिंग के आते ही कारें, ट्रेक्टर और अधिसंख्य लोग दुपहिया वाहनों पर सवार दिखाई देते हैं. इनका पहनावा अलग है. सिंध के आस पास लुंगी और फ़िर इस तरफ बेहद ढीली धोती बांधी जाती है, जिसे हम तेवटा कहते हैं. अब वह लंगोट की तरह कस कर जांघों के बीच चली आई है. ये नागौर के पुरुषों का पहनावा है. नागौर का प्रचार कुछ इस तरह से किया गया जैसे यहाँ बैलों के सिवा कुछ खास कभी हुआ ही नहीं.
नागौरी बैल यकीनन कद-काठी में ऊँची और बेहद शक्तिशाली नस्ल है फ़िर भी मुझे नागौर का ये परिचय खास अच्छा नहीं लगता. हालाँकि दुनिया भर के सब हिस्सों की पहचान में कुछ जानवर जुड़े होते हैं. वैसे हमारी मालाणी की पहचान इससे ठीक लगती है कि मालाणी का परिचय घोड़ों के साथ दिया जाता है. राजस्थान की खारे पानी की सबसे बड़ी बरसाती नदी जो 'कच्छ का रन' में जाकर गिरती है. उस लूणी की नमक भरी रेत पर लोट कर बड़े हुए ये तुरंग, अरबी घोड़ों के बाद घुड़सवारों की पहली पसंद है.
अचानक मेरा ध्यान एक बुजुर्गवार पर गया. आप पतली पतली सी पुस्तिकाएं बाँट रहे थे. मेरा दिल धक कर के रह गया. मुझे लगा कि ये डिब्बा हाईजेक होने को है. अब बेसुरी आवाज़ों के सांप फन फैलाये हुए आयेंगे और हमें ज़िन्दा निगल जायेंगे. मेरे साथ ऐसा कई बार हुआ कि मैंधार्मिक यात्रा पर निकले समूहों के डिब्बों में फंस गया था. वे सस्ते फ़िल्मी गीतों पर इकलौते ईश्वर के भिन्न रूपों की सामूहिक ऐसी तेसी करते. वह बेसुरा क्रन्दन इतना प्रभावी होता कि मेरी सीट पर कीलें उग आती. मैं उठ कर डिब्बे के दरवाज़े पर चला जाता.
इस बार मेरे इस उतरे हुए चेहरे पर अचानक चमक लौट आई कि वे पुस्तिकाएं बच्चों के लिखी गयी नीति कथाएं थी. मैंने ख़ुशी की लम्बी साँस ली और उस ईश्वर के इन भक्तों का धन्यवाद किया कि ये असीम दया दिखाते हुए भजन दुपहरी शुरू नहीं कर रहे.
नागौर मेरे ज़हन फ़िर लौट आया. बैलों वाला नागौर नहीं वरन अकबर के नौ रत्नों में से दो रत्न अबुल फज़ल और फैज़ी का जन्मस्थान नागौर. वह नागौर जिसके निवासी शेख़ मुबारक ने उलेमाओं के बीच गज़ब का कायदा स्थापित करवाने के लिए बादशाह अकबर के लिए अचूक आज्ञापत्र तैयार किया था. वह एक संविधान बनाने जैसा काम था. ये दो रत्न उसी शेख़ मुबारक के ही बेटे थे. मुझे एक और बड़ा नायाब आदमी याद आया. उसका नाम था अब्दुल क़ादिर बदायूँनी. जिसने बादशाह अकबर के यहाँ नौकरी पर रहते हुए भी चोरी छिपे उस वक़्त का सच्चा इतिहास लिखा और उस दौर में दिल्ली में वही सबसे अधिक बिकने वाली किताब थी. मुझे ये मुल्ला बदायूँनी जन्मजात नाख़ुश और नालायक पात्र लगता है. उसकी मृत्यु के बाद में जहाँगीर ने उसके खानदान को यह कहते हुए लूट कर जेल में डाल दिया था कि उस पुस्तक ने अब्बाजान की बेइज्जती की थी.
इन यादों का कारण है कि मेरे पिता इतिहास पढ़ाते थे और छोटा भाई भी इतिहास का एसोसियेट प्रोफ़ेसर है. उनके द्वारा सुनाये गए रोचक किस्से हँसते-हँसते मेरे मन पर अपनी छाप छोड़ते गए हैं. लेकिन मैंने कभी इतिहास नहीं पढ़ा. संभव है कि प्रेमचंद की कथा बड़े भाई साहब में दिए गए उद्धरण कि "आठ-आठ हेनरी गुज़रे हैं, कौनसा कांड किस हेनरी के समय में हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो ?..." यही डर मुझे इतिहास से दूर ले गया होगा. फ़िर थोड़ा बड़ा हुआ तो सोचता रहा कि पदेलों (पाद मारने वाले) और कमसिन लड़कियों को फंसाने के अनुभवों के किस्से लिख कर, लिखा गया ऐतिहासिक उपन्यास 'दिल्ली', लेखक खुशवंत सिंह की नज़र में इतिहासनामा है तो खैर हुई कि इतिहास न पढ़ा.
जून का महीना और बेतरहा गरमी. अनुनय विनय कर डिब्बे में भरे हुए हरिद्वार जाने वाले वेटिंग लिस्ट के तीर्थयात्री. वातानुकूलन यन्त्र से आती हुई नाकाफ़ी हवा के बीच अजनबियों के चेहरे देख कर उकताए हुए बच्चे अपने किसी खेल में रम गए थे. मैंने बहुत से स्टेशन देखे हैं जहाँ चाय, कॉफ़ी, बिस्किट, स्नेक्स, पूरी, सब्जी और पानी के अलावा कोई खास चीज़ भी बिकती हो. जोधपुर के पास लूणी जंक्शन रसगुल्ले के लिए प्रसिद्द रहा है. मैं पर्यटक के तौर पर कभी इस स्टेशन से गुजरा होता तो भी उन रसगुल्लों को कभी नहीं खरीदता. वे देसी डिब्बाबंद तकनीक में या फ़िर हाथ ठेले पर कांच के पीछे रखे होते. कुछ आम किस्म की डिश स्थान विशेष पर ख़ास हो जाया करती है. जैसे बस के सफ़र में बाड़मेर और जोधपुर के बीच धवा गाँव में दाल के पकोड़े खाने के लिए रुकना यात्री बहुत पसंद करते हैं.
ऐसी एक खूबी नागौर पर भी दिखाई दे जाती है कि वहां मेथी (Fenugreek) की सूखी हुई हरी पत्तियां बेची जाती है. यह एक लाजवाब मसाला है. मेथी के स्वाद और खुशबू की दीवानगी सर चढ़ कर बोलती है. अगर आप सामान्य कोच में यात्रा कर रहे हों तो खिड़की के रास्ते मेथी की सुगंध आप तक पहुँच ही जाएगी. पाकिस्तान के सियालकोट में महाशय चुन्नी लाल की मसालों की एक छोटी सी दुकान थी. बंटवारे के बाद उन्होंने दिल्ली के करोल बाग़ इलाके में महाशिया दी हट्टी ऑफ़ सियालकोट के नाम से खोली. वह अब वैश्विक ब्रांड एम डी एच हो गयी है. महाशिया वाले पहले पाकिस्तान के कसूर इलाके की मेथी को बेचा करते थे, भारत आने के बाद इन्होने कसूर इलाके की मेथी से भी बेहतर खुशबू वाली नागौर की मेथी बेचनी शुरू की. एम डी एच ने अपना समूचा कारोबार लाल देगी मिर्च और नागौर की मशहूर मेथी को बेच कर खड़ा किया है.
हम सुबह छः बजे इस रेल में सवार हुए थे और अब तक दिन के डेढ़ बज चुके थे. हमें भी भूख लग आई थी. बच्चों की चाची ने इडली और साम्भर बना कर भेजी थी. नानी के घर से आलू और परांठे बन कर आये थे. जया सांगरी की लीडरशिप में पंचकूटा की सब्जी देसी घी में बना कर साथ लाई थी. जोधपुर से बैठे यात्रियों ने भी अपने स्टील के कटोरदान खोलने शुरू किये. पूरा डिब्बा बीकानेरी भुजिया, जोधपुरी शाही समौसों, लहसुन की चटनी और भांत भांत के पकवानों से आती मसालों की गंध से भर गया। जैसे हमारा डिब्बा पटरी से उतर कर किसी पाकशाला में घुस आया है. मनवार शब्द का शाब्दिक अर्थ है आग्रह. अब तक धार्मिक पर्यटन पर निकले परिवारों के पच्चीस से पैंतीस आयु वर्ग के नए गृहस्थों की टोली जो मोबाइल पर ऊँची आवाज़ में बात करने, गाने सुनने और चुहलबाजियों में व्यस्त थी, एकाएक अच्छे मेजबानों में रूपायित हो गयी. हम सब के भोजन के बाद देसी घी से बनी मिठाई के डिब्बे हमारे कूपे में भी दाखिल हुए और बच्चों को पकड़ लिया. खाओ, अरे पापा मना नहीं करते हैं, तो क्या तुम मिठाई खाते ही नहीं, ले लो बेटा. इस तरह की मनवार से कोई कैसे बच सकता है.
वैसे भी राजस्थान के लोग मेजबानी और मनवार में अतुलनीय हुनर के धनी होते हैं. अट्ठारह सौ में बंगाल आर्मी में कमीशन लेकर आया केडेट जेम्स टोड कुछ साल मराठों को संभालने के लिए नियुक्त रहा फ़िर उसे राजपुताना में जासूस और निगोशियेटर बना कर भेज दिया गया. वह यहाँ आते ही मनवारों के सम्मोहन में गिरफ़्तार होकर कम्पनी और महारानी के आदेश को भूल गया. उसने पर्यटन किया. अद्भुत राजस्थान की भौगोलिक और सांस्कृतिक विशेषताओं को दर्ज किया. उस कर्नल जेम्स टोड की लिखी पुस्तक "एन्नल्स ऐंड एंटीक्युटीज़ ऑफ़ राजस्थान" को आज भी राजस्थान का सच्चा और इकलौता इतिहास ग्रंथ माना जाता है.
दोपहर के भोजन के बाद वातानुकूलित डिब्बे में यात्रा करते हुए साँझ होने तक प्रति वयस्क आपको दो लीटर पानी की जरुरत होती है. रेगिस्तान के इस सफ़र की असली मुश्किल नागौर के बाद आपसे हाथ मिलाती है. जून महीने का तापमान चवालीस से उनचास डिग्री के बीच होता है. रेलवे स्टेशन खाली. सड़कें सूनी. मजदूर सुस्ताते हुए. पंछी गायब. दूर तक एक धूप की चमक साथ चलती है. डिब्बे का वातावरण किसी भरे हुए पब की आधी रात जैसा हो जाता है. गरम सांसें, चिपचिपा पसीना और फ्रेश के नाम पर सिर्फ़ झुंझलाहट.
इस गाड़ी में पेंट्री कार नहीं है. मतलब साफ है चाय, कॉफ़ी कुछ नहीं मिलेगा. दो रूपये के पानी की बोतल को पंद्रह रुपये में बेचने वाले इस डिब्बे में नहीं आयेंगे. आपके पास डिब्बे में कोई ज़िन्दा ऊंट भी नहीं होगा जिसे मार कर उसके पेट में रखा पंद्रह बीस लीटर पानी आप पी सकें. इसलिए हमेशा याद रखिये कि रेगिस्तान की प्यास बहुत बड़ी होती है. हमारे पास कोई तीन लीटर पानी था. धान मंडी के लिए प्रसिद्द जगह नोखा, चूहों की देवी करणी माता के मंदिर वाला देशनोक और कई छोटे स्टेशन गुजरते जाते हैं मगर सूने पड़े हुए इन स्टेशनों पर बस एक प्याऊ होती. जिस तक पहुँच कर पानी भर के लौटने के लिए माइकल जोर्डन जितना सामर्थ्य चाहिए. फ़िर उन स्थानों पर पानी हो इसकी संभावना आपके सौभाग्य पर निर्भर करती है.
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