कभी सोचता हू

कभी सोचता हूँ की हर बार हम जब कुछ ठान कर चलते है, तो कुछ और क्यों होता है |
जब रास्ता हम चुनते है, तो बीच में मंजिलें क्यों बदल जाती है |

हम शुरू कुछ और करते है, ख़तम कुछ और |
हर बार ऐसा क्यों होता है की लाख कोशिशों के बावजूद,
जीवन पर पूरा नियंत्रण नहीं रहता |

हम सब की कहानियां भी अजीब है,
अब अपने जीवन को पांच साल ज़रा पीछे ले जाकर देखिये,
आप क्या सोच कर चले थे और आज क्या बन गए हो |

पर शायद जीवन हमें यही सिखाता है,
की हम आगे क्या होगा, यह सोच कर बैठे न रहें |
और हर दिन एक नई शुरुवात करतें चले जायें...
अपना काम अच्छी तरह करते चले जायें...
क्योंकि कोई नहीं जानता कि पांच साल बाद हम कहाँ होंगें, किस हाल में होंगें |

इसी से प्रेरित हो, मै कुछ अलग तरह कि कविता लिखने कि कोशिश करना चाहता हूँ |
नियम ये है कि दो शब्दों कि पंक्तियाँ होंगी और उसकी एक कविता -

" मैं चला,
नया लक्ष्य,
नया रास्ता,
नये लोग,
नये अनुभव |
कुछ दुविधा,
कुछ भाग्य,
कुछ परिश्रम,
कही चूक |
थोडा साहस,
थोडा धैर्य,
बदला भाग्य,
बदले रस्ते,
बदला लक्ष्य,
बदला जीवन,
बदला मैं |
मै चला... "

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता है,

परफेक्शन

धर्म के नाम पर