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स्वच्छ भारत अभियान --- जयसिँह शेखावत, गाँव- बबाई, तहसिल- खेतङी, जिला- झुँझुनूँ ( राजस्थान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो अक्तूबर को देशव्यापी स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की. शुभ दिन की प्रतीक्षा के पहले ही मंत्रियों तथा आला अफसरों ने झाड़ू थाम ली और कैमरे के आगे अपने-अपने अश्वमेधी घोड़े छोड़ने में जुट गए हैं. यह शक़ बेबुनियाद नहीं कि इस बार भी यह अनुष्ठान दिखावा भर ही न रह जाए, अधिक से अधिक एक सालाना दिखावटी रस्म अदायगी.
बहरहाल यह ‘पर्व’ हमें भारतीय जीवन में स्वच्छता के बारे में गंभीरता से सोचने का एक नायाब मौका दे रहा है जिसका सदुपयोग किया जाना चाहिए. अक्सर यह कहा जाता है कि हम हिंदुस्तानी अपने शरीर की सफाई का तो ध्यान रखते हैं, अपने घरों को भी जहां तक हो सके साफ़-सुथरा रखते हैं पर सार्वजनिक जीवन में साझे के स्थानों को दूसरे की ज़िम्मेदारी मान कर चलते हैं. जहां जी चाहे थूकते हैं, लघुशंका से निवृत्त हो लेते हैं.
ख़ाली प्लास्टिक की बोतल, थर्मोकोल की पत्तल हो या नमकीन मिठाई या गुटका मसाला के चमकीले पैकेट-पन्नियां इन्हें प्यार बांटते चलो वाली अदा में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखेरना हमारी आदत हो गई है.
ठंडे दिमाग़ से सोचने की बात यह है कि सार्वजनिक स्थानों का प्रदूषण क्या हमारी सांस्कृतिक विरासत है या एक मजबूरी जिसके लिए कहीं वर्ण व्यवस्था ज़िम्मेदार है तो कहीं वर्ग विभाजन? हम यह मान कर चलते हैं जो ग़रीब हैं, दलित हैं या निर्धन अल्पसंख्यक हैं वह आदतन गंदे होते हैं- गंदगी पैदा करते हैं. विडंबना यह है कि इस गंदी सोच को ही सबसे पहले साफ़ किया जाना चाहिए यह कोई नहीं कह रहा!
कहीं न कहीं इस कड़वे सच का सामना भी ज़रूरी है कि यह समस्या शौचालयों तथा पेशाबघरों या कूड़ादानों के निर्माण तथा रख-रखाव तक सीमित नहीं.
सरकार जो कर सकती है या स्वयंसेवी ग़ैर-सरकारी संगठन जो कर सकते हैं उसकी सीमाएं हैं.
हमारे अपने दैनिक-सार्वजनिक जीवन में ‘क्रांतिकारी’ बदलाव के अभाव में सभी स्वच्छता-अभियान टांय-टांय फिस ही होते रहेंगे.
आम भारतीय अपने घर से बाहर किसी भी सार्वजनिक स्थान को गंदा करने में कई बार बिल्कुल नहीं झिझकते. स्वच्छ भारत के लिए सरकारी अमलों के साथ जनता को भी अपनी आदतें बदलनी होंगी.
— बहरहाल यह ‘पर्व’ हमें भारतीय जीवन में स्वच्छता के बारे में गंभीरता से सोचने का एक नायाब मौका दे रहा है जिसका सदुपयोग किया जाना चाहिए. अक्सर यह कहा जाता है कि हम हिंदुस्तानी अपने शरीर की सफाई का तो ध्यान रखते हैं, अपने घरों को भी जहां तक हो सके साफ़-सुथरा रखते हैं पर सार्वजनिक जीवन में साझे के स्थानों को दूसरे की ज़िम्मेदारी मान कर चलते हैं. जहां जी चाहे थूकते हैं, लघुशंका से निवृत्त हो लेते हैं.
ख़ाली प्लास्टिक की बोतल, थर्मोकोल की पत्तल हो या नमकीन मिठाई या गुटका मसाला के चमकीले पैकेट-पन्नियां इन्हें प्यार बांटते चलो वाली अदा में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखेरना हमारी आदत हो गई है.
ठंडे दिमाग़ से सोचने की बात यह है कि सार्वजनिक स्थानों का प्रदूषण क्या हमारी सांस्कृतिक विरासत है या एक मजबूरी जिसके लिए कहीं वर्ण व्यवस्था ज़िम्मेदार है तो कहीं वर्ग विभाजन? हम यह मान कर चलते हैं जो ग़रीब हैं, दलित हैं या निर्धन अल्पसंख्यक हैं वह आदतन गंदे होते हैं- गंदगी पैदा करते हैं. विडंबना यह है कि इस गंदी सोच को ही सबसे पहले साफ़ किया जाना चाहिए यह कोई नहीं कह रहा!
कहीं न कहीं इस कड़वे सच का सामना भी ज़रूरी है कि यह समस्या शौचालयों तथा पेशाबघरों या कूड़ादानों के निर्माण तथा रख-रखाव तक सीमित नहीं.
सरकार जो कर सकती है या स्वयंसेवी ग़ैर-सरकारी संगठन जो कर सकते हैं उसकी सीमाएं हैं.
हमारे अपने दैनिक-सार्वजनिक जीवन में ‘क्रांतिकारी’ बदलाव के अभाव में सभी स्वच्छता-अभियान टांय-टांय फिस ही होते रहेंगे.
आम भारतीय अपने घर से बाहर किसी भी सार्वजनिक स्थान को गंदा करने में कई बार बिल्कुल नहीं झिझकते. स्वच्छ भारत के लिए सरकारी अमलों के साथ जनता को भी अपनी आदतें बदलनी होंगी.
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