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मई, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रकृति के साथ हू मै

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प्रकृति ईश्वर की वह संरचना है जिसमे मनुष्य , जानवर , कीट , पतंग , पेड़ पौधे आदि अपने अस्तित्व को जिंदा रखने के लिए पूर्ण रूप से आश्रित है पूर्व समय मे मनुष्यप्रकृति के अनुरूप अपनी कम आवश्यक्ताओ के साथ प्रकृति की देन का उपभोग करता था जैसे-जैसे समय चक्र बढ़ता गया मनुष्य के  आवश्यक्ताओ मे भी वृद्धि होती गई , जिसका एक प्रमुख कारण सामने आता है , वह है ‘ जनसंख्या वृद्धि जो वर्तमान समय मे सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने खड़ा है जनसंख्या वृद्धि से बढ़ती जरूरतों को नज़रअंदाज़ नही किया जा सकता है उसी के अनुरूप मनुष्य को सर छुपाने हेतु , मकान , अनाज हेतु , तन को ढकने हेतु कपड़े आदि की आवश्यकता बढ़ जाती है , और शायद इन सभी स्त्रोतों का एक मात्र साधन प्रकृति है।        यद्यपि मनुष्य मूलतः पेड़-पौधो को ही अपनी आवश्यक्ताओ मे सर्वोपरि रखता है। प्रकृति से हमे कई चीजे सीखने को मिलती है , ये हमे उपहार देती भी है और लेती भी है , हर मौसम , हर ऋतु हमे जीवन का कोई अनमोल सूत्र देती है। प्रकृति से हम सबसे पहले देने की क्ला को सीखे , बिना भेद भाव , बिना किसी पूर्वाग्रह के ...

भारतीय सिनेमा

'ये कहाँ आ गए हैं हम' लता जी की मीठी आवाज़ में गाया गया ये गाना आज भारतीय सिनेमा के १०० साल की यात्रा पर बिल्कुल फिट बैठता है क्योंकि अपने उदगम से लेकर आज तक भारतीय सिनेमा में इतने ज्यादा बदलाव आये हैं कि कोई भी अब ये नहीं कह सकता कि आज की दौर में बनने वाली फिल्में उसी भारतीय सिनेमा का अंग है, जो हमेशा भारतीय समाज में चेतना को जाग्रत करता आया है। कहा जाता है कि किसी भी समाज को सही राह दिखाने के लिए सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा है, क्योंकि सिनेमा दृश्य और श्रव्य दोनों का मिला जुला रूप है और ये सीधे मनुष्य के दिल पर प्रभाव डालता है। हमारे भारतीय सिनेमा ने अपने गौरवमयी १०० साल पूरे कर लिये हैं, पर इन १०० सालों की यात्रा भारतीय सिनेमा कहा से कहाँ पंहुचा यह सोचनीय विषय है या फिर यूँ कहा जाए कि इन १०० सालों की यात्रा में भारतीय सिनेमा ने समाज को क्या दिया? ये सच है कि फिल्में समाज का आईना हैं और समाज के सशक्‍त निर्माण में फिल्मों की अहम् भूमिका होती है और इसीलिए ८० की दशक की फिल्में जमींदारी, स्त्री शोषण सहित उन सभी मुद्दों पर आधारित होती थीं, जो समाज को प्रभावित करते थे। तब जो फिल्में...

मैं एक इंसान हूँ

मैं एक बहुत ही सरल और विनम्र इंसान हूँ। अपने देश, परिवार और धर्म को विशेष एहमियत देता हूँ। मेरी सोच पूर्णतः भारतीय और हिंदूवादी है, और मैं बस यही सोचता हूँ कि सबसे पहले भारत उसके बाद अपना परिवार, फिर धर्म। मेरा कट्टरपंथ को किसी भी तरह का समर्थन नहीं है। मेरा मानना है कि जब किसी मनुष्य में धर्म को लेकर कट्टरपंथी विचारधारा बन जाये तो वो मनुष्य अपने धर्म और परिवार के साथ विनाश की तरफ बढ़ रहा होता है। इंसान को सबसे पहले इंसान बन जाना चाहिए फिर धर्म और जाति की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी। जिन्दगी की आधी शिकायत तो ऐसे ही दूर हो जाये, अगर लोग एक दुसरे से बोलना सीख़ जाएँ। अगर खुश होना है तो साथ रहना सीखना होगा। हमारा सबका यही मानना है कि ईश्वर ने मनुष्य को बनाया है, अगर हम ईश्वर को सर्वोच्च शक्ति मानते हैं तो हम होते कौन है ईश्वर के बारे में कुछ भी तय करने वाले। समय-समय पर कुछ गिने चुने कट्टरपंथियों ने मजहबी शागुफे छेड देश की एकता और अखंडता पर कठोर, क्रूर, आघात किये हैं। चाहे वो अयोध्या में राम मंदिर और बाबरी मस्जिद ध्वस्तीकरण हो या गुजरात में गोधरा काण्ड, इसके अलावा मालेगांव ब्लास्ट, कोशिकला (मथु...

जीवन जीने की कला

सभी सुख एवं शांति चाहते हैं, क्यों कि हमारे जीवन में सही सुख एवं शांति नहीं है। हम सभी समय समय पर द्वेष, दौर्मनस्य, क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि के कारण दुखी होते हैं। और जब हम दुखी होते हैं तब यह दुख अपने तक ही सीमित नहीं रखते। हम औरों को भी दुखी बनाते हैं। जब कोई व्यक्ति दुखी होता है तो आसपास के सारे वातावरण को अप्रसन्न बना देता है, और उसके संपर्क में आने वाले लोगों पर इसका असर होता है। सचमुच, यह जीवन जीने का उचित तरिका नहीं है। हमें चाहिए कि हम भी शांतिपूर्वक जीवन जीएं और औरों के लिए भी शांति का ही निर्माण करें। आखिर हम सामाजिक प्राणि हैं, हमें समाज में रहना पडता हैं और समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ पारस्पारिक संबंध रखना है। ऐसी स्थिति में हम शांतिपूर्वक जीवन कैसे जी सकते हैं? कैसे हम अपने भीतर सुख एवं शांति का जीवन जीएं, और कैसे हमारे आसपास भी शांति एवं सौमनस्यता का वातावरण बनाए, ताकि समाज के अन्य लोग भी सुख एवं शांति का जीवन जी सके? हमारे दुख को दूर करने के लिए पहले हम यह जान लें कि हम अशांत और बेचैन क्यों हो जाते हैं। गहराई से ध्यान देने पर साफ मालूम होगा कि जब हमारा मन विकारों से...

क्या हमारे हीरो चोर हैं

हाल ही में गिरफ्तार हुए क्रिकेटर और संजय दत्त की सरेंडर की गौरवगाथा सुनकर लगा कि क्या हमारे हीरो चोर हैं? वैसे भी हमारे देश में अगर किसी भी बच्चे या बूढ़े से पूछो कि उसका पसंदीदा हीरो कौन है तो वह या तो क्रिकेट के खिलाड़ी का नाम लेगा या फिल्मों के हीरो का! लेकिन इनकी कारगुजारियों को देखकर लगता है कि क्या यह हीरो बनने लायक हैं। अगर हमारे देश के लोगों के हीरो ऐसे लोग हैं तो फिर जिन्होंने हीरो बनाया है, उनका हाल आप सहज ही समझ सकते हैं। कुछ लोग नेताओं को भी अपना आदर्श मानते हैं। हालांकि उनके ग्राफ में बहुत तेजी से गिरावट हो रही है। हमारे बंसल साहब भी हीरो बनने में लगे हुए थे। रेल मंत्रालय मिलते ही पत्रकार और कैमरामैन के साथ जनरल के डिब्बे में सफर करते हैं ताकि अखबारों में छपता रहे कि वह कितने महान आदमी है। अब बताइए जैसे कि अखबारों में खबरे आ रही है कि उनके आंख के नीचे ही गरीबों की धोती भी उतारी जा रही थी लेकिन वह अपने शाही सूट की बटने संवारने में ही लगे थे। उनका भांजा उन्हीं के दफ्तर में गुल खिला रहा था और उन्हें पता ही नहीं। खैर, इस बात पर जनता तो यकीन नहीं करेगी भले ही सीबीआई कर...

वास्तविकता

जिन्दगी वास्तविकता से परे लग रही है .इतने झूट मिलते है की लगता है सच्चाई कुछ समय बाद सिर्फ किताबों में हे मिलेगी .भविष्य में बच्चों को बताया जायेगा की झूट बोलना हमारा जन्मसिद्य अधिकार है और उन्हें अपने इस अधिकार का हमेशा पालन करना चाहिए .तब खुच लोगों को बीमार बताया जायेगा और बताया जायेगा की इन्हे सच बोलने की बीमारी है .कुछ लोग अपनों के सामने इतने सलीके से झूट बोलते है,ये जानते हुए की उनका अपना जन रहा है की बो झूट बोल रहे है,की सक होगा की इन्होने अपने जीवन में कभी भी झूट नहीं बोल होगा .जिन्दगी हकीकत से बहुत दूर चली गए है और अब बापस आ पाना बहुत ही कठिन लगता है .इस झूट की आदत लोगों को इतनी हो गए है की बो अव अपने आप से भे आसानी से झूट बोल लेते है और बैसे ही जैसे की किसी और से बोल रहे हों .अगर बो खुद से झूट न बोल पायें तो सायद बो दुनियां से भी न बोल पायेगें क्योंकि उनकी अंतरात्मा उनकी जुबान बंद कर देगी और बो झूट बोलने में असफल हो जायेंगे .कितना अजीब लगता है जब किसी को झूट बोलते हुए देखता हूँ .बो मुझसे नहीं अपने आप से झूट बोल रहे होते है . और गम इस बात का होतक है की बो जन कर भे नहीं जन पता...

सरबजीत सिंह

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सरबजीत नहीं रहा,वह शहीद हो गया | हम हार गए क्योकि हमने अपने देश को निकम्मों के हाथों में दे रखा है | सरबजीत की आत्मा को शांती मिले | शहीद को नमन .... मैं नहीं जानता की वह दोषी था या निर्दोष लेकिन जिस तरह से उसकी हत्या की गयी वह बहुत ही घटिय ा और निर्मम है |निर्दोषों की निष्ठुरता से, मानवता की नृशंसता से और शांति की खौफ से समाप्ति का कब तक यह निर्दयी नाच चलेगा ......कब तक हम हर वात के लिए चुप-चाप बैठे रहेंगे ..कब तक ये संहार चलेगा और कब तक ये चीत्कार उठेंगी मानवता का सरेआम कब तक ये उल्हास उड़ेगा ??? थू है ऐसे स्वाभिमान पर ऐसे अभिमान पर जो दुशमनों को जमीन न चटा सके . अगर मेरा भारत कथित भारत महान नहीं होकर केवल भारत होता ..य्हना के लोग भारतीय होते ..यहाँ के लोग हिन्दू मुसलमान ..सिक्ख इसाई नहीं होते केवल हिन्दुस्तानी और भारतीय होते यहाँ अमेरिका के गुलाम कभी सरकारी नोकर रहे मनमोहन सिंह की जगह हमारे जेसे पागल प्रधानमत्री होते ..सियासी पार्टियां कुर्सी के लियें नहीं देश के लिए लड़ रहे होते ...हमारे देश में से लड़ने का खुद का होसला होता ..हमे इसके लियें अमेरिका की इजाज़त की जरूरत नहीं होती तो दो...