आज फिर ...


आज' फिर उठाई थी कलम
 जज़बातों के साथ
 ढेरों थी बातें
 फिर भी जकड़े थे हाथ
 कोशिश तो बहुत की
 पर कलम बढ़ न पाई

 कुछ ही शब्द मिले
 फिर फूट पढ़ी रुलाई
 वजह पूछो तो
 पता नहीं
 बस उलझा है मन
 बेवजह कहीं
 क्या कुछ खोया मैंने?
 या आई किसी की याद
 या फिर
 कुछ न मिलने के दर्द में
 कट गए दिन रात
 सुर्ख है दिल का आलम
 इन जज़बातों के साथ
 ढेरों हैं बातें
 फिर भी जकड़े हैं हाथ ....
 शायद वोह 'समय' आ ही गया
 की बीत जाऊँगा मैं ए मेरी हम्नफ्ज़
 जो बस कभी तुमसे वादा किया था
 अब लिखने की कोई तम्मना भी नहीं
 क्योकि आपकी ख्वाइशों के सजदे में
 मेरे हाथ बंधे कर रह गए .....
 कुछ आरजूएं, कुछ ख़त, कुछ नगमे ,एक राज़ बन के रह गए
 किसी ख़ुशी के लिए हम बस एक साज़ बनके रह गए
 समय चलता गया 'हमारे' निशाँ समय की रेत पर मिटते चले गए ...

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