आधुनिक शिक्षा प्रणाली
आज की आधुनिक शिक्षा और गाँधीजी की बुनियादी
शिक्षा हमारे रहने, जीने, और सोचने का ढंग बदलती आज की आधुनिक शिक्षा
प्रणाली कितनी सार्थक व जीवनउपयोगी है हम भलीभाँती जानते है गाँधीजी ने
"हिन्द स्वराज" (पुस्तिका) में लिखा था "अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने
राष्ट्र को गुलाम बनाया है । जो लोग अंग्रेजी पढे हुए है, उनकी संतानों को
नीति ज्ञान, मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस
्तान
की दूसरी भाषा सिखानी चाहिए "अन्य प्राचीन धर्मो की तरह वैदिक दर्शन की भी
यह मान्यता है कि प्रकृति प्राणधारा से स्पन्दित है। सम्पूर्ण चराचर जगत
अर्थात् पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, आग, वायु, जल, वनस्पति और जीव-जंतु सब में
दैवत्व की धारा प्रवाहित है। वैदिक दर्शन ने हमें सम्पूर्ण अस्तित्व के
प्रति गहन श्रद्धा और स्त्रेह से जीना सिखाया। इस दृष्टि का इतना अधिक
प्रभाव था कि जब प्रकृ ति की गोद में स्थित एक आश्रम में पली-पोसी कालीदास
की "शकुन्तला अपने पति दुष्यन्त से मिलने के लिए शहर जाने लगी तो उसकी
जुदाई से वे पौधे जिन्हें उसने सींचा, फूल जिनकी उसने देखभाल की, मृग
जिन्हें उसने पोçष्ात किया आदि अत्यधिक दुखी हुए। यहां तक कि लताओं ने भी
अपने पीले पत्ते झाड़कर रूदन करना शुरू कर दिया।
वह ऎसा युग था जब मानव व प्रकृति के बीच पूर्ण तादात्म्य और सीधा सम्पर्क था। आवश्यकताएं सीमित थीं, मनुष्य इतना संतोष्ाी था कि प्रकृति के शोषण की बात तो वह सपने में भी नहीं सोच सकता था। प्रकृति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध ही सभी धर्मो का मर्म था। समय ने करवट बदली। शहरीकरण और औद्योगीकरण के साथ मनुष्य का प्रकृति से सम्पर्क टूट गया। तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में उसकी यह अनुभूति समाप्त हो गई कि प्रकृति भी एक जीवन्त शक्ति है। इस विकास का अर्थ था प्रकृति का उसके अस्तित्व की कीमत पर शोषण। एक तरफ जीवन की आवश्यकताओं व मन की इच्छाओं और दूसरी ओर विवेकपूर्ण आचरण की आवश्यकता के बीच संतुलन बिगड़ गया। दृश्य पदार्थ ने मानव जीवन की सूक्ष्म अदृश्य आत्मा को पराजित कर दिया। वैदिक लोकाचार ऎसे समग्र जीवन का उल्लेख करता है, जिसमें शरीर, बुद्धि, मन और आत्मा सभी की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता हो। शरीर को आवश्यकता है रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा व अन्य सभी भौतिक सुख-सुविधाओं की। मन इच्छाओं का केन्द्र है, जो चाहता है कि इच्छाएं पूरी हों । लेकिन बुद्धि आवश्यकताओं को सीमित करने तथा इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए हमारा इस तरह मार्गदर्शन करती है कि प्रकृति के पुनर्चक्रीकरण की प्रक्रिया व सभ्य समाज के महीन तन्तु अस्त-व्यस्त नहीं हों। मैं आपके समक्ष जीवन के तीन बुनियादी पहलुओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा, जो गहन पारिस्थितिकी के सिद्धान्तों से प्रगाढ़ रूप से जुड़े हुए हैं।
न केवल पारिस्थितिकी और टिकाऊ जीवन के लिए अपितु जीवन के प्रति समग्र दृष्टिकोण के लिए भी धर्म और शिक्षा की भूमिका सबसे पहले आती हैं। आज शिक्षा व्यवसायोन्मुख हो गई है, जो केवल रोजी-रोटी कमाने तक सीमित रह गई है। धर्म, परम्पराएं पीछे छूट गए हैं, जो मूल्य-परक शिक्षा के स्रोत थे। वैदिक परिप्रेक्ष्य में मैं कहना चाहूंगा कि सिक्के की तरह मानव जीवन के भी दो पहलू हैं। एक दृश्य है और दूसरा है अदृश्य, जो हमारी इंद्रियों की समझ से परे है। वह कारण और कार्य भाव की तरह काम करते हैं। अदृश्य जगत ही दृश्य जगत का संचालन करता है। हमारे शरीर में बुद्धि, भावनाएं और आत्मा अदृश्य हैं। भारतीय जीवन पद्धति ने सदियों से दृश्य और अदृश्य के बीच संतुलन बनाए रखा है। मेरी समझ में आज प्राकृतिक पर्यावरण के अवकष्ाüण और वर्तमान कष्ट का एकमात्र कारण आधुनिक शिक्षा प्रणाली का एकान्तिक दृष्टिकोण है। यह व्यावहारिकता और यथार्थवाद से कोसों दूर है। शिक्षा का प्रारम्भ इस एकमात्र लक्ष्य को लेकर हुआ कि सामाजिक दृष्टि से अच्छे इंसान तैयार हों। किंतु अब यह विकृत होकर ऎसी प्रणाली में बदल गई है जो शरीर और बुद्धि की बात तो करती है किन्तु मनुष्य का आध्यात्मिक और भावनात्मक दृष्टि से स्पर्श नहीं करती। इसका ही परिणाम है कि असंतुलित व्यक्तित्व तैयार हो रहे हैं। जितनी उच्च शिक्षा, उतना ही अधिक असंतुलन। आज कोई भी आत्मा के बारे में नहीं सोचता, जो शरीर में सौ वर्षो तक रहती है - यह शरीर ही जिसका वाहक है। यह मानव जीवन के उस महत्वपूर्ण पहलू की उपेक्षा करती है, जिसमें प्रकृति के प्रति श्रद्धा और अन्य मनुष्यों के हित की चिंता निहित है।
इसीलिए तथाकथित शिक्षित लोग ही पारिस्थितिकी और पर्यावरण समरसता के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। वे प्रकृति को जड़ वस्तु मानते हैं जो मानो मानव के उपयोग और "शोष्ाण के लिए ही बनी हो। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 1995 में प्रकाशित जनसंख्या व जीवन स्तर पर स्वतंत्र आयोग "इंडिपेंडेंट कमीशन ऑन पापुलेशन एंड क्वालिटी ऑफ लाइफ" की रिपोर्ट इस तथ्य को प्रकट करती है कि "मनुष्य के अस्तित्व के लिए प्राकृतिक पर्यावरण बहुत महžवपूर्ण है। भावी पीढियों के लिए पर्यावरण का पोष्ाण और देखभाल आवश्यक है, जिसकी उपेक्षा की जा रही है।" माता-पिता द्वारा सृजित इस नश्वर शरीर में आत्मा को अविनाशी कहा जाता है। आचरण या संस्कार की दृष्टि से दोनों के स्तर अलग-अलग हैं। शरीर में आत्मा दूसरे शरीर से आती है, जो आवश्यक नहीं कि मनुष्य का ही हो। वह पिछले जन्म के संस्कार भी साथ लाती है। मनुष्य की भूमिका से समरसता के लिए इन संस्कारों की पहचान और शुद्धीकरण की प्रक्रिया आवश्यक होती है। इसमें धर्म महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। क्योंकि वह जीवन की व्यक्तिगत प्रतिबद्धता से सम्बन्धित होता है। यह सभी मजहबों से ऊपर है। क्योकि धर्म आत्मा से जुड़ा है और यह व्यक्ति की मुक्ति का मार्ग है। मजहब अथवा सम्प्रदाय इसकी सामाजिक अभिव्यक्ति है।
आधुनिक शिक्षा ऎसी बुद्धि से जुड़ी है, जो व्यक्ति को रोजगार दिलाने में मदद करती है। मानवीय संवेदनशीलता के बजाए उसका सम्बन्ध विष्ायों से ज्यादा है। यह ह्वदय की संस्कृति विकसित करने का प्रयास नहीं करती। भावनात्मक दृष्टि से महिला पुरूष्ा से ज्यादा संवेदनशील मानी जाती है। वह भी समानता और महिला सशक्तीकरण के वैश्विक अभियान के लपेटे में आ गई है। वह भी मां और पत्नी की भावुक भूमिका की कीमत पर पुरूष्ा की बौद्धिक जीवन श्ौली की लालसा करने लगी है। पति-पत्नी को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। किन्तु व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण ऎसा हो नहीं रहा है। दोनों स्वावलम्बी और प्रतिस्पर्धी बने रहकर किसी भी समय एक-दूसरे से अलग होने को तैयार रहते हैं। भारत में ऎसा नहीं है। भारत में तो पति-पत्नी के सम्बन्ध मृत्यु के बाद भी नहीं टूटते हैं। स्वाधीनता, आर्थिक स्वतंत्रता और समानता के लिए संघष्ाü करने वाली महिला नारीत्व की प्राकृतिक भूमिका को अस्वीकार कर खुद प्रकृति को चुनौती दे रही है। केवल महिला ही है जो इस धरती पर ह्वदय की संस्कृति का निर्माण करने में सक्षम है, लेकिन हास्यास्पद है कि वह अब पुरूष्ा का अनुकरण करने में जुटी है। कैसे वह जीवन भर पुरूष्ा को आकçष्ाüत करके जोडे रख सकती है। समान ध्रुव में विकष्ाण होता है। उसका अदृश्य ह्वदय और आत्मा उसके अहम के साथ मेल नहीं खाते। आज शोष्ाण भी उसी का सबसे ज्यादा हो रहा है और पूरी दुनिया इसकी कीमत चुका रही है। मां की भूमिका को दोयम दर्जे का मान लिया गया है। महिला ही बच्चों में जीवन-मूल्यों और जीवन के उद्देश्य हस्तान्तरित करने की प्रकृति प्रदत्त क्षमता रखती है। मां को ही शिशु का प्रथम गुरू माना जाता है। जब वह खुद जीवन के संघष्ाोü में उलझ गई तो उसके पास बच्चों को जीवन-मूल्यों के संस्कार देने के लिए समय ही नहीं बचता, जिससे बच्चों को अनुभव होने लगे कि प्रकृति और मानव अविभाज्य हैं - एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
पृथ्वी पर पारिस्थितिकी संतुलन कायम रखने के लिए हमें गहराई में इसकी जड़ों तक जाना होगा। हमें मां के रूप की सबसे महžवपूर्ण भूमिका को फिर स्थापित करना होगा और हम सभी को उसमें श्रद्धा रखनी होगी। बच्चों के व्यक्तित्व पर उसका रचनात्मक प्रभाव ही उन्हें संतुलित मानव बना सकता है। जो गूढ़ पारिस्थितिकी विज्ञान के सिद्धान्तों को अपना सके। जिनका उल्लेख अर्नेनैस ने अपनी पुस्तक "द इकोलॉजी ऑफ विजडम" में किया है। इस पुस्तक में पृथ्वी पर मानवीय और गैर-मानवीय जीवन के फलने-फूलने व जीवन के विविध रूपों की विविधता और समृद्धता पर जोर दिया गया है। यह जानना दिलचस्प होगा कि वेदों में धातु, जल, वायु और पृथ्वी जैसे निर्जीव तत्वों में भी जीवन माना गया है। इस विविधता और समृद्धता को कम करके हम अपने विनाश की ओर ही बढ़ेंगे। इस लक्ष्य के लिए भारत के वैदिक परिदृश्य में जीवन पुरूष्ाार्थ चतुष्टय पर आधारित है। ये चार पुरूष्ाार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। पुरूष्ाार्थ का अर्थ है "आत्मा के लिए", जो एक अवधि के बाद शरीर से मुक्ति चाहता है। अर्थ या सम्पत्ति इस शरीर के लिए है। काम मानस से सम्बन्धित या इच्छाओं/ मनोभावों का केन्द्र है। अर्थ और काम पिछले जन्म के कर्माें को भी प्रकट करते हैं। ये पूरी तरह इस जन्म के प्रयासों पर आधारित नहीं होते। निश्चय ही, धर्म "वर्तमान" का प्रकाश-स्तम्भ है। वह कर्म की दिशा और गति तय करता है, जो किसी व्यक्ति के संकल्प या जीवन के प्रति स्वयं की प्रतिबद्धता के अनुरूप होती है। मनुष्य जब गर्भ में होता है तभी से धर्म नाभि-रज्जु के जरिए उसके साथ जुड़ता है। आधुनिक भाष्ाा में हम इस रज्जु को किसी व्यक्ति के धर्म का प्रतीक कह सकते हैं। इसके माध्यम से मां बच्चे के भविष्य का निर्धारण करती है। वह अपने शरीर व मन में हो रहे परिवर्तनों से इस आत्मा के स्वभाव को समझती है और आवश्यकता के अनुरूप कदम उठाती है। आधुनिक शिक्षित माताएं यह नींव नहीं रखतीं। जो जन्म के बाद में पढ़ाया जाता है वह "रिलिजन" है। इस नए दौर का बच्चा धर्म के बिना, अर्थ और काम के जरिए ही पलता-बढ़ता है। उस पर सामाजिक, नैतिक या धार्मिक किसी भी तरह की बंदिशें नहीं होतीं। इसलिए वह आत्मा की मुक्ति के चरण तक नहीं पहुंच सकता। समाज देखेगा कि उसकी नींव पर हमला करने वाले मानव के भेष्ा में पशु अधिकाधिक तैयार हो रहे हैं।
हमें शिक्षा के लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना होगा। उसे जड़ शरीर और बुद्धि को नहीं अपितु आत्मा को शिक्षित करना चाहिए और वह भी प्रेम और केवल प्रेम के द्वारा ही। अन्य कुछ भी हो, कुछ खास नहीं होगा। इन तीनों (धर्म, अर्थ और काम) के बीच सुव्यवस्थित संतुलन रखकर ही दुनिया में पारिस्थितिकी संतुलन को कायम रखा जा सकता है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बच्चों के संस्कार परिष्कृत करने, माताओं की प्रभावी शिक्षक की भूमिका फिर कायम करने और धर्म, अर्थ व काम के बीच समन्वय कायम रखने के कदम नहीं उठाए जाएंगे तो पारिस्थितिकी संकट दिनोंदिन गंभीर और बेकाबू होता जाएगा। गाँधीजी का "यंग इण्डिया" में प्रकाशित (१९२१) लेख के माध्यम से स्पष्ट कहाँ कि "यथार्थ शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से देना असम्भव है तथा प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए । " गाँधीजी ने अक्टुम्बर १९३७ में वर्धा के शिक्षा-सम्मेलन में कहाँ था कि "सवाल होता है कि प्राथिमक शिक्षा का स्वरुप क्या हो ? मेरा जवाब यह कि किसी उद्योग या दस्तकारी को बीच में रखकर उसके जरिये ही यह सारी शिक्षा दी जानी चाहिए । लड़को को कुछ भी सिखाया जाए, आप कह सकते है कि मध्यम युग में हमारे यहाँ लड़कों को सिर्फ धन्धए ही सिखाये जाते थे । मैं मानता हूँ, लेकिन उन धन्धों के जरिये सारी तालिम देने की बात लोगों के सामने न थी । धन्धा सिर्फ धन्धें के ख्याल से सिखाया जाता था । हम तो धन्धें या दस्तकारी की मदद से दिमाग को आला(बढिया) बनाना चाहते है मैं तो प्राथमिक शिक्षा के लिए कोई धन्धा आता हो तो निस्संकोच उसे सुझाइये, ताकि हम उस पर भी कर सकें । लकड़ी मुझे सबसे ज्यादा इसलिए जंचती है कि कि इसे छोड़कर और धन्धओं के लिए हमारे पास कोई सामान मौजूद नहीं है । अपने लिए शिक्षा का यही तरीका उपयोगी होगा बशर्ते कि हम अपने बालकों को शहरी न बनाना चाहें । हम तो उन्हें अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता और अपने देश की सच्ची प्रतिभा का प्रतिनिधि बनाना चाहते हैं और मेरे ख्याल में स्वावलम्बी प्राथमिक शिक्षा के सिवा दूसरे ढ़ंग से हम उन्हें ऐसा बना नहीं सकते । इस मामले में यूरोप हमारा आदर्श नही बन सकता है, क्योंकि वह हिन्सा पर विश्वास करता है हमारे पास शिक्षा का इस अंहिसात्म योजना के सिवा और कोई उपाय ही कहाँ है । "शिक्षा का आरम्भ उद्योग और उसके द्वारा होना चाहिए ऐसा गाँधीजी मानते थे शिक्षा का मतलब केवल अक्षरी ज्ञान तक ही सीमित न रहना । शिक्षा के बारे में "हरिजन" नामक (८ सितम्बर१९३९) के एक लेख में लिखा कि मेरा मत है कि बुद्धि की सच्ची शिक्षा शारीरिक अंगों के उचित व्यायाम और अनुशआसन से प्राप्त हो सकती है शारीरिक अंगों के बुद्धिपूर्ण उपयोग से बालक का बोद्धिक विकास होता है । गाँधी जी का विश्वास था कि प्राथमिक शिक्षा में दस्तकारी को एक पृथक विषय रखने के बजाय उसके माध्यम से गणित, भूगोल, इतिहास इत्यादि पढ़ाना चाहिए ताकि दस्तकारी द्वारा बच्चे को त्रम की प्रतिष्ठा और स्वावलम्बन की भी शिक्षा दी जा सके । गाँधी जी किताबी ज्ञान अपेक्षा अपने अनुभव से प्राप्त ज्ञान को अधिक महत्व देते थे । शिक्षा मातृभाषा के माध्यम सी ही दी जानी चाहिए । राष्ट्रभाषा का बोल-समझ सकने वाला ज्ञान दिया जाए धार्मिक शिक्षा भी अनिवार्य रुप से दी जाए ताकि धर्म व संस्कृति का भी उसे ज्ञान मिल सके किताबी ज्ञान नही होना चाहिए शिक्षक के आचरण का भी विशेष महत्व उस बालक पर पड़ता है जो उससे शिक्षा हासिल कर रहाँ हो अतः शिक्षक का आचरण ठीक-ठाक हो बालकों को १६ वर्ष तक की आयु के बाद अपनी मातृभाषा की शिक्षा भी दी जानी चाहिए जैसे हिन्दु को हिन्दी व मुसलमान को अरबी भाषा का ज्ञान दिया जाना चाहिए उन्हें शारीरिक कार्यों के साथ अक्षरी ज्ञान का भी पाठ पढ़ाया जाए ताकि वे जल्द शिक्षा व्यवहारिक तौर पर सीख सकें । गाँधी जी ने प्राथमिक शिक्षा को लेकर जो स्वप्न देखा था वह था कि - प्रत्येक शासन की सत्ता पर निर्भर न रहे । समाज में श्रम को ही गौरवपूर्ण और जीविका के क्षेत्र में वे स्वावलम्बी हो । व्यक्ति को एक नई दिशा देने के प्रयास में थे गाँधीजी शिक्षा के जरिये ।गाँधीजी का नजरिया शिक्षा के प्रति इस तरह का था वे सबी के लिए समान रुप से शिक्षा देने का प्रयास करने में हित समझते थे किताबी ज्ञान से वे शिक्षा के साथ साथ बच्चे को स्वावलम्बनी बनाने का सोचते थे ताकि वह व्यक्ति अपनी जीविका आसानी से चला सकें चाहे वह कितना ही गरीब क्यों न हो ? उनकी प्राथिमक शिक्षा की नीति गरीब लोगों की भावना को ध्यान में रखकर बनाई गई थी ।
आज की आधुनिक शिक्षा नीति ठीक इसके विपरीत है अभावनात्मक नीति यूरोपीयन छाप से प्रेरित जिसमें आम व्यक्ति से कोई सरोकार नही होता है उस शिक्षा का हमारे जीवन में क्या महत्व होगा किस दिशा की ओर हमें ले जाएगी हम स्वयं अनुमान लगा सकते है रटन प्रणाली से रटे हुए प्रश्नोत्तरों को परीक्षा परिणाम अंच्छे आने के उद्देश्य से रटे जाते है जो परिणाम आने के दो माह तक कुछ ज्ञान नही होता कि हमने किसी प्रकार का कितना रटा और परीक्षा परिणाम तक ही उसका उपयोग रहता है असल जीवन में उस रटन अध्यनावली कोई काम की नही होती है । अच्छे अंक प्राप्त करके हजारों की ताबाद में शिक्षित बेरोजगार युवक-युवतियाँ नौकरी पोने के लिए लायतित घूम रही है लाखों रुपयों की मँहगी किताबे पढ़कर वे चन्द डिग्री ही हासिल कर पाते है और वे डिग्रीयाँ भी मह्तवहीन जब होती है जब कि हमें हजारों प्रयास के बावजुद भी नौकरी न मिल सके और छोटा-मोटा काम-धन्धा तो हम कर ही नही सकते है क्योंकि आधुनिक शिक्षा पद्धति में रटन शिक्षा के अलावा कोई व्यवसायिक पाठ्यक्रम नही सिखाया जाता है जिसे हम आसानी से व्यवसाय के रुप में अपना सकें । हमारी शिक्षा नीति के आधुनिककरण के अलावा बढ़ती गरीबी और जनसंख्यां वृद्धि ने बेरोजगारी की समस्याँ ओर भी विकराल कर दी है हताश युवा गरीबी और बैरोजगारी से, रोज रोज पारिवारिक ताने सामाजिक जाने से परेशान जल्द अमीरी के स्वप्न संजोने में लग जाते है और अपराधिकता से नाता जोड़ लेते है जिससे स्वयं का अहित तो होता है, बल्कि समाज व राष्ट्र का भी जाने-अनजाने में अहित करने से नही कतराते है । अतः शिक्षा के साथ हमारी सोच भी आधुनिक यूरोपीय सोच से प्रभावित होकर अनीतिपूर्ण होने की वजह से हमें आत्मउत्थान का मार्ग नही मिल पाता है । अतः हमें उत्तम शिक्षा जो नीतिपूर्ण हो जो हमें भय व निराशा से भी मुक्ति दे सकें अनुशासित जीवन, आत्मसम्मान, कर्त्तव्यनिष्ठता, विश्वास, प्रेमाभाव से परिपूर्ण नीतिज्ञान जो एक श्रेष्ठ नागरिक बना सके ऐसी शिक्षा पद्धति अपनाई जाए जो शिक्षा के साथ स्वरोजगार के स्वसुलभ जिसे गरीब बच्चें भी फायदा उठा सकें । आज के दौर शिक्षा सिर्फ अंग्रेजी, प्राश्चात संस्कृति की धाप बनकर रह गई है । जो हमारी रुचि के अनुसार हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास में सहायक होकर हमें श्रेष्ठ नागरिक बनाने में हमारी मदद करें । अनैतकतापूर्ण स्कुलों व कालेज परिसरों में आये दिन हिन्सात्मक वारदाते होना हमारी आधुनिकत्म शिक्षा नीति पर प्रश्नचिन्ह लगाता है हमारी नीतिज्ञयता में कमी इसी का परिणाम है हमारे आदर्श क्या है गुरु का सम्मान क्या होता है माँता-पिता की आदर करना इत्यादि का ज्ञान हमारे व्यवहार से बाहर हो जाने से हम आसपास के माहौल से प्रेरित बाहरी शिक्षा नीति की बाहरी संस्कृति व नीति को अपनाकर अपने ही भविष्य के साथ खिडवाल कर रहे है बल्कि समाज व राष्ट्र का भी अहित कर रहे है । संस्कृति का ज्ञान न होना हमारी शिक्षा नीति में नीतिज्ञ ज्ञान का अभाव भावी पीढ़ी ही नही भविष्य में सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए अहितकर होगा । अतः जरुरत है हमें आधुनिक शिक्षा में बदलाव की । लाखों रुपयों की योजनाएं चलाने के बजाए शिक्षा का सरलीकरण व प्राथमिक शिक्षा के साथ साथ व्यवसाईक पाठ्यक्रम भी सिखाये जाए ताकि वे बच्चे जो इस समय (आज के दौर में ) हमारे देश में सबसे ज्यादा है जरा सी पूजी के साथ व्यसाय कर अपने परिवार का भरण-पोषण के साथ साथ अपनी स्कुली प्राथमिक शिक्षा की तालिम भी लेते रहे स्कुलों में भोजन व्यवस्था व मुक्त की किताबे, स्कुल ड्रेस, स्कालशिप से गरीब बच्चे स्कुल की ओर आकृर्षित जरुर हुए है, लेकिन वे गरीब बच्चे जो माँ-बाप के साथ स्वयं भी परिवार की आय स्त्रोत के लिए मजदुरी करने पर बाध्य है उनके लिए ऐसी योजनाएँ किस काम की अतः हमारी सरकार को इस तरह के बच्चों को शिक्षित बनाने के लिए प्राथिमक शिक्षा के साथ साथ व्यवसायिकता सम्बन्धी पाठ्यक्रम दि.ये जाए ताकि वे पढ़ाई के साथ साथ बालमजुदरी के लिए बाध्य न रहें। गाँधी जी ने कहाँ था कि - पाठशाला चरित्र निर्माण, शिक्षा रोजगार का साधन स्थली होना चाहिए वह शिक्षा जो मनुष्य को कम्प्युटर की भांति ज्ञैन-सामग्री का विश्वकोश, रोबोट के समान मानवशुन्य पशुता की श्रेणी में न ला खण्डा करें मानवी जीवन का महत्व है उसके विचारों आदशों से । अतः गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा नीति का स्वप्न आज भी कितना प्रासंगित है अमल योग्य कितना आवश्यक है अनैतिकता की बेडियाँ तोडने के लिए हमें उनके आदर्शो को पूर्नः अपनाना होगा ।
वह ऎसा युग था जब मानव व प्रकृति के बीच पूर्ण तादात्म्य और सीधा सम्पर्क था। आवश्यकताएं सीमित थीं, मनुष्य इतना संतोष्ाी था कि प्रकृति के शोषण की बात तो वह सपने में भी नहीं सोच सकता था। प्रकृति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध ही सभी धर्मो का मर्म था। समय ने करवट बदली। शहरीकरण और औद्योगीकरण के साथ मनुष्य का प्रकृति से सम्पर्क टूट गया। तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में उसकी यह अनुभूति समाप्त हो गई कि प्रकृति भी एक जीवन्त शक्ति है। इस विकास का अर्थ था प्रकृति का उसके अस्तित्व की कीमत पर शोषण। एक तरफ जीवन की आवश्यकताओं व मन की इच्छाओं और दूसरी ओर विवेकपूर्ण आचरण की आवश्यकता के बीच संतुलन बिगड़ गया। दृश्य पदार्थ ने मानव जीवन की सूक्ष्म अदृश्य आत्मा को पराजित कर दिया। वैदिक लोकाचार ऎसे समग्र जीवन का उल्लेख करता है, जिसमें शरीर, बुद्धि, मन और आत्मा सभी की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता हो। शरीर को आवश्यकता है रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा व अन्य सभी भौतिक सुख-सुविधाओं की। मन इच्छाओं का केन्द्र है, जो चाहता है कि इच्छाएं पूरी हों । लेकिन बुद्धि आवश्यकताओं को सीमित करने तथा इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए हमारा इस तरह मार्गदर्शन करती है कि प्रकृति के पुनर्चक्रीकरण की प्रक्रिया व सभ्य समाज के महीन तन्तु अस्त-व्यस्त नहीं हों। मैं आपके समक्ष जीवन के तीन बुनियादी पहलुओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा, जो गहन पारिस्थितिकी के सिद्धान्तों से प्रगाढ़ रूप से जुड़े हुए हैं।
न केवल पारिस्थितिकी और टिकाऊ जीवन के लिए अपितु जीवन के प्रति समग्र दृष्टिकोण के लिए भी धर्म और शिक्षा की भूमिका सबसे पहले आती हैं। आज शिक्षा व्यवसायोन्मुख हो गई है, जो केवल रोजी-रोटी कमाने तक सीमित रह गई है। धर्म, परम्पराएं पीछे छूट गए हैं, जो मूल्य-परक शिक्षा के स्रोत थे। वैदिक परिप्रेक्ष्य में मैं कहना चाहूंगा कि सिक्के की तरह मानव जीवन के भी दो पहलू हैं। एक दृश्य है और दूसरा है अदृश्य, जो हमारी इंद्रियों की समझ से परे है। वह कारण और कार्य भाव की तरह काम करते हैं। अदृश्य जगत ही दृश्य जगत का संचालन करता है। हमारे शरीर में बुद्धि, भावनाएं और आत्मा अदृश्य हैं। भारतीय जीवन पद्धति ने सदियों से दृश्य और अदृश्य के बीच संतुलन बनाए रखा है। मेरी समझ में आज प्राकृतिक पर्यावरण के अवकष्ाüण और वर्तमान कष्ट का एकमात्र कारण आधुनिक शिक्षा प्रणाली का एकान्तिक दृष्टिकोण है। यह व्यावहारिकता और यथार्थवाद से कोसों दूर है। शिक्षा का प्रारम्भ इस एकमात्र लक्ष्य को लेकर हुआ कि सामाजिक दृष्टि से अच्छे इंसान तैयार हों। किंतु अब यह विकृत होकर ऎसी प्रणाली में बदल गई है जो शरीर और बुद्धि की बात तो करती है किन्तु मनुष्य का आध्यात्मिक और भावनात्मक दृष्टि से स्पर्श नहीं करती। इसका ही परिणाम है कि असंतुलित व्यक्तित्व तैयार हो रहे हैं। जितनी उच्च शिक्षा, उतना ही अधिक असंतुलन। आज कोई भी आत्मा के बारे में नहीं सोचता, जो शरीर में सौ वर्षो तक रहती है - यह शरीर ही जिसका वाहक है। यह मानव जीवन के उस महत्वपूर्ण पहलू की उपेक्षा करती है, जिसमें प्रकृति के प्रति श्रद्धा और अन्य मनुष्यों के हित की चिंता निहित है।
इसीलिए तथाकथित शिक्षित लोग ही पारिस्थितिकी और पर्यावरण समरसता के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। वे प्रकृति को जड़ वस्तु मानते हैं जो मानो मानव के उपयोग और "शोष्ाण के लिए ही बनी हो। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 1995 में प्रकाशित जनसंख्या व जीवन स्तर पर स्वतंत्र आयोग "इंडिपेंडेंट कमीशन ऑन पापुलेशन एंड क्वालिटी ऑफ लाइफ" की रिपोर्ट इस तथ्य को प्रकट करती है कि "मनुष्य के अस्तित्व के लिए प्राकृतिक पर्यावरण बहुत महžवपूर्ण है। भावी पीढियों के लिए पर्यावरण का पोष्ाण और देखभाल आवश्यक है, जिसकी उपेक्षा की जा रही है।" माता-पिता द्वारा सृजित इस नश्वर शरीर में आत्मा को अविनाशी कहा जाता है। आचरण या संस्कार की दृष्टि से दोनों के स्तर अलग-अलग हैं। शरीर में आत्मा दूसरे शरीर से आती है, जो आवश्यक नहीं कि मनुष्य का ही हो। वह पिछले जन्म के संस्कार भी साथ लाती है। मनुष्य की भूमिका से समरसता के लिए इन संस्कारों की पहचान और शुद्धीकरण की प्रक्रिया आवश्यक होती है। इसमें धर्म महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। क्योंकि वह जीवन की व्यक्तिगत प्रतिबद्धता से सम्बन्धित होता है। यह सभी मजहबों से ऊपर है। क्योकि धर्म आत्मा से जुड़ा है और यह व्यक्ति की मुक्ति का मार्ग है। मजहब अथवा सम्प्रदाय इसकी सामाजिक अभिव्यक्ति है।
आधुनिक शिक्षा ऎसी बुद्धि से जुड़ी है, जो व्यक्ति को रोजगार दिलाने में मदद करती है। मानवीय संवेदनशीलता के बजाए उसका सम्बन्ध विष्ायों से ज्यादा है। यह ह्वदय की संस्कृति विकसित करने का प्रयास नहीं करती। भावनात्मक दृष्टि से महिला पुरूष्ा से ज्यादा संवेदनशील मानी जाती है। वह भी समानता और महिला सशक्तीकरण के वैश्विक अभियान के लपेटे में आ गई है। वह भी मां और पत्नी की भावुक भूमिका की कीमत पर पुरूष्ा की बौद्धिक जीवन श्ौली की लालसा करने लगी है। पति-पत्नी को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। किन्तु व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण ऎसा हो नहीं रहा है। दोनों स्वावलम्बी और प्रतिस्पर्धी बने रहकर किसी भी समय एक-दूसरे से अलग होने को तैयार रहते हैं। भारत में ऎसा नहीं है। भारत में तो पति-पत्नी के सम्बन्ध मृत्यु के बाद भी नहीं टूटते हैं। स्वाधीनता, आर्थिक स्वतंत्रता और समानता के लिए संघष्ाü करने वाली महिला नारीत्व की प्राकृतिक भूमिका को अस्वीकार कर खुद प्रकृति को चुनौती दे रही है। केवल महिला ही है जो इस धरती पर ह्वदय की संस्कृति का निर्माण करने में सक्षम है, लेकिन हास्यास्पद है कि वह अब पुरूष्ा का अनुकरण करने में जुटी है। कैसे वह जीवन भर पुरूष्ा को आकçष्ाüत करके जोडे रख सकती है। समान ध्रुव में विकष्ाण होता है। उसका अदृश्य ह्वदय और आत्मा उसके अहम के साथ मेल नहीं खाते। आज शोष्ाण भी उसी का सबसे ज्यादा हो रहा है और पूरी दुनिया इसकी कीमत चुका रही है। मां की भूमिका को दोयम दर्जे का मान लिया गया है। महिला ही बच्चों में जीवन-मूल्यों और जीवन के उद्देश्य हस्तान्तरित करने की प्रकृति प्रदत्त क्षमता रखती है। मां को ही शिशु का प्रथम गुरू माना जाता है। जब वह खुद जीवन के संघष्ाोü में उलझ गई तो उसके पास बच्चों को जीवन-मूल्यों के संस्कार देने के लिए समय ही नहीं बचता, जिससे बच्चों को अनुभव होने लगे कि प्रकृति और मानव अविभाज्य हैं - एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
पृथ्वी पर पारिस्थितिकी संतुलन कायम रखने के लिए हमें गहराई में इसकी जड़ों तक जाना होगा। हमें मां के रूप की सबसे महžवपूर्ण भूमिका को फिर स्थापित करना होगा और हम सभी को उसमें श्रद्धा रखनी होगी। बच्चों के व्यक्तित्व पर उसका रचनात्मक प्रभाव ही उन्हें संतुलित मानव बना सकता है। जो गूढ़ पारिस्थितिकी विज्ञान के सिद्धान्तों को अपना सके। जिनका उल्लेख अर्नेनैस ने अपनी पुस्तक "द इकोलॉजी ऑफ विजडम" में किया है। इस पुस्तक में पृथ्वी पर मानवीय और गैर-मानवीय जीवन के फलने-फूलने व जीवन के विविध रूपों की विविधता और समृद्धता पर जोर दिया गया है। यह जानना दिलचस्प होगा कि वेदों में धातु, जल, वायु और पृथ्वी जैसे निर्जीव तत्वों में भी जीवन माना गया है। इस विविधता और समृद्धता को कम करके हम अपने विनाश की ओर ही बढ़ेंगे। इस लक्ष्य के लिए भारत के वैदिक परिदृश्य में जीवन पुरूष्ाार्थ चतुष्टय पर आधारित है। ये चार पुरूष्ाार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। पुरूष्ाार्थ का अर्थ है "आत्मा के लिए", जो एक अवधि के बाद शरीर से मुक्ति चाहता है। अर्थ या सम्पत्ति इस शरीर के लिए है। काम मानस से सम्बन्धित या इच्छाओं/ मनोभावों का केन्द्र है। अर्थ और काम पिछले जन्म के कर्माें को भी प्रकट करते हैं। ये पूरी तरह इस जन्म के प्रयासों पर आधारित नहीं होते। निश्चय ही, धर्म "वर्तमान" का प्रकाश-स्तम्भ है। वह कर्म की दिशा और गति तय करता है, जो किसी व्यक्ति के संकल्प या जीवन के प्रति स्वयं की प्रतिबद्धता के अनुरूप होती है। मनुष्य जब गर्भ में होता है तभी से धर्म नाभि-रज्जु के जरिए उसके साथ जुड़ता है। आधुनिक भाष्ाा में हम इस रज्जु को किसी व्यक्ति के धर्म का प्रतीक कह सकते हैं। इसके माध्यम से मां बच्चे के भविष्य का निर्धारण करती है। वह अपने शरीर व मन में हो रहे परिवर्तनों से इस आत्मा के स्वभाव को समझती है और आवश्यकता के अनुरूप कदम उठाती है। आधुनिक शिक्षित माताएं यह नींव नहीं रखतीं। जो जन्म के बाद में पढ़ाया जाता है वह "रिलिजन" है। इस नए दौर का बच्चा धर्म के बिना, अर्थ और काम के जरिए ही पलता-बढ़ता है। उस पर सामाजिक, नैतिक या धार्मिक किसी भी तरह की बंदिशें नहीं होतीं। इसलिए वह आत्मा की मुक्ति के चरण तक नहीं पहुंच सकता। समाज देखेगा कि उसकी नींव पर हमला करने वाले मानव के भेष्ा में पशु अधिकाधिक तैयार हो रहे हैं।
हमें शिक्षा के लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना होगा। उसे जड़ शरीर और बुद्धि को नहीं अपितु आत्मा को शिक्षित करना चाहिए और वह भी प्रेम और केवल प्रेम के द्वारा ही। अन्य कुछ भी हो, कुछ खास नहीं होगा। इन तीनों (धर्म, अर्थ और काम) के बीच सुव्यवस्थित संतुलन रखकर ही दुनिया में पारिस्थितिकी संतुलन को कायम रखा जा सकता है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बच्चों के संस्कार परिष्कृत करने, माताओं की प्रभावी शिक्षक की भूमिका फिर कायम करने और धर्म, अर्थ व काम के बीच समन्वय कायम रखने के कदम नहीं उठाए जाएंगे तो पारिस्थितिकी संकट दिनोंदिन गंभीर और बेकाबू होता जाएगा। गाँधीजी का "यंग इण्डिया" में प्रकाशित (१९२१) लेख के माध्यम से स्पष्ट कहाँ कि "यथार्थ शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से देना असम्भव है तथा प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए । " गाँधीजी ने अक्टुम्बर १९३७ में वर्धा के शिक्षा-सम्मेलन में कहाँ था कि "सवाल होता है कि प्राथिमक शिक्षा का स्वरुप क्या हो ? मेरा जवाब यह कि किसी उद्योग या दस्तकारी को बीच में रखकर उसके जरिये ही यह सारी शिक्षा दी जानी चाहिए । लड़को को कुछ भी सिखाया जाए, आप कह सकते है कि मध्यम युग में हमारे यहाँ लड़कों को सिर्फ धन्धए ही सिखाये जाते थे । मैं मानता हूँ, लेकिन उन धन्धों के जरिये सारी तालिम देने की बात लोगों के सामने न थी । धन्धा सिर्फ धन्धें के ख्याल से सिखाया जाता था । हम तो धन्धें या दस्तकारी की मदद से दिमाग को आला(बढिया) बनाना चाहते है मैं तो प्राथमिक शिक्षा के लिए कोई धन्धा आता हो तो निस्संकोच उसे सुझाइये, ताकि हम उस पर भी कर सकें । लकड़ी मुझे सबसे ज्यादा इसलिए जंचती है कि कि इसे छोड़कर और धन्धओं के लिए हमारे पास कोई सामान मौजूद नहीं है । अपने लिए शिक्षा का यही तरीका उपयोगी होगा बशर्ते कि हम अपने बालकों को शहरी न बनाना चाहें । हम तो उन्हें अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता और अपने देश की सच्ची प्रतिभा का प्रतिनिधि बनाना चाहते हैं और मेरे ख्याल में स्वावलम्बी प्राथमिक शिक्षा के सिवा दूसरे ढ़ंग से हम उन्हें ऐसा बना नहीं सकते । इस मामले में यूरोप हमारा आदर्श नही बन सकता है, क्योंकि वह हिन्सा पर विश्वास करता है हमारे पास शिक्षा का इस अंहिसात्म योजना के सिवा और कोई उपाय ही कहाँ है । "शिक्षा का आरम्भ उद्योग और उसके द्वारा होना चाहिए ऐसा गाँधीजी मानते थे शिक्षा का मतलब केवल अक्षरी ज्ञान तक ही सीमित न रहना । शिक्षा के बारे में "हरिजन" नामक (८ सितम्बर१९३९) के एक लेख में लिखा कि मेरा मत है कि बुद्धि की सच्ची शिक्षा शारीरिक अंगों के उचित व्यायाम और अनुशआसन से प्राप्त हो सकती है शारीरिक अंगों के बुद्धिपूर्ण उपयोग से बालक का बोद्धिक विकास होता है । गाँधी जी का विश्वास था कि प्राथमिक शिक्षा में दस्तकारी को एक पृथक विषय रखने के बजाय उसके माध्यम से गणित, भूगोल, इतिहास इत्यादि पढ़ाना चाहिए ताकि दस्तकारी द्वारा बच्चे को त्रम की प्रतिष्ठा और स्वावलम्बन की भी शिक्षा दी जा सके । गाँधी जी किताबी ज्ञान अपेक्षा अपने अनुभव से प्राप्त ज्ञान को अधिक महत्व देते थे । शिक्षा मातृभाषा के माध्यम सी ही दी जानी चाहिए । राष्ट्रभाषा का बोल-समझ सकने वाला ज्ञान दिया जाए धार्मिक शिक्षा भी अनिवार्य रुप से दी जाए ताकि धर्म व संस्कृति का भी उसे ज्ञान मिल सके किताबी ज्ञान नही होना चाहिए शिक्षक के आचरण का भी विशेष महत्व उस बालक पर पड़ता है जो उससे शिक्षा हासिल कर रहाँ हो अतः शिक्षक का आचरण ठीक-ठाक हो बालकों को १६ वर्ष तक की आयु के बाद अपनी मातृभाषा की शिक्षा भी दी जानी चाहिए जैसे हिन्दु को हिन्दी व मुसलमान को अरबी भाषा का ज्ञान दिया जाना चाहिए उन्हें शारीरिक कार्यों के साथ अक्षरी ज्ञान का भी पाठ पढ़ाया जाए ताकि वे जल्द शिक्षा व्यवहारिक तौर पर सीख सकें । गाँधी जी ने प्राथमिक शिक्षा को लेकर जो स्वप्न देखा था वह था कि - प्रत्येक शासन की सत्ता पर निर्भर न रहे । समाज में श्रम को ही गौरवपूर्ण और जीविका के क्षेत्र में वे स्वावलम्बी हो । व्यक्ति को एक नई दिशा देने के प्रयास में थे गाँधीजी शिक्षा के जरिये ।गाँधीजी का नजरिया शिक्षा के प्रति इस तरह का था वे सबी के लिए समान रुप से शिक्षा देने का प्रयास करने में हित समझते थे किताबी ज्ञान से वे शिक्षा के साथ साथ बच्चे को स्वावलम्बनी बनाने का सोचते थे ताकि वह व्यक्ति अपनी जीविका आसानी से चला सकें चाहे वह कितना ही गरीब क्यों न हो ? उनकी प्राथिमक शिक्षा की नीति गरीब लोगों की भावना को ध्यान में रखकर बनाई गई थी ।
आज की आधुनिक शिक्षा नीति ठीक इसके विपरीत है अभावनात्मक नीति यूरोपीयन छाप से प्रेरित जिसमें आम व्यक्ति से कोई सरोकार नही होता है उस शिक्षा का हमारे जीवन में क्या महत्व होगा किस दिशा की ओर हमें ले जाएगी हम स्वयं अनुमान लगा सकते है रटन प्रणाली से रटे हुए प्रश्नोत्तरों को परीक्षा परिणाम अंच्छे आने के उद्देश्य से रटे जाते है जो परिणाम आने के दो माह तक कुछ ज्ञान नही होता कि हमने किसी प्रकार का कितना रटा और परीक्षा परिणाम तक ही उसका उपयोग रहता है असल जीवन में उस रटन अध्यनावली कोई काम की नही होती है । अच्छे अंक प्राप्त करके हजारों की ताबाद में शिक्षित बेरोजगार युवक-युवतियाँ नौकरी पोने के लिए लायतित घूम रही है लाखों रुपयों की मँहगी किताबे पढ़कर वे चन्द डिग्री ही हासिल कर पाते है और वे डिग्रीयाँ भी मह्तवहीन जब होती है जब कि हमें हजारों प्रयास के बावजुद भी नौकरी न मिल सके और छोटा-मोटा काम-धन्धा तो हम कर ही नही सकते है क्योंकि आधुनिक शिक्षा पद्धति में रटन शिक्षा के अलावा कोई व्यवसायिक पाठ्यक्रम नही सिखाया जाता है जिसे हम आसानी से व्यवसाय के रुप में अपना सकें । हमारी शिक्षा नीति के आधुनिककरण के अलावा बढ़ती गरीबी और जनसंख्यां वृद्धि ने बेरोजगारी की समस्याँ ओर भी विकराल कर दी है हताश युवा गरीबी और बैरोजगारी से, रोज रोज पारिवारिक ताने सामाजिक जाने से परेशान जल्द अमीरी के स्वप्न संजोने में लग जाते है और अपराधिकता से नाता जोड़ लेते है जिससे स्वयं का अहित तो होता है, बल्कि समाज व राष्ट्र का भी जाने-अनजाने में अहित करने से नही कतराते है । अतः शिक्षा के साथ हमारी सोच भी आधुनिक यूरोपीय सोच से प्रभावित होकर अनीतिपूर्ण होने की वजह से हमें आत्मउत्थान का मार्ग नही मिल पाता है । अतः हमें उत्तम शिक्षा जो नीतिपूर्ण हो जो हमें भय व निराशा से भी मुक्ति दे सकें अनुशासित जीवन, आत्मसम्मान, कर्त्तव्यनिष्ठता, विश्वास, प्रेमाभाव से परिपूर्ण नीतिज्ञान जो एक श्रेष्ठ नागरिक बना सके ऐसी शिक्षा पद्धति अपनाई जाए जो शिक्षा के साथ स्वरोजगार के स्वसुलभ जिसे गरीब बच्चें भी फायदा उठा सकें । आज के दौर शिक्षा सिर्फ अंग्रेजी, प्राश्चात संस्कृति की धाप बनकर रह गई है । जो हमारी रुचि के अनुसार हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास में सहायक होकर हमें श्रेष्ठ नागरिक बनाने में हमारी मदद करें । अनैतकतापूर्ण स्कुलों व कालेज परिसरों में आये दिन हिन्सात्मक वारदाते होना हमारी आधुनिकत्म शिक्षा नीति पर प्रश्नचिन्ह लगाता है हमारी नीतिज्ञयता में कमी इसी का परिणाम है हमारे आदर्श क्या है गुरु का सम्मान क्या होता है माँता-पिता की आदर करना इत्यादि का ज्ञान हमारे व्यवहार से बाहर हो जाने से हम आसपास के माहौल से प्रेरित बाहरी शिक्षा नीति की बाहरी संस्कृति व नीति को अपनाकर अपने ही भविष्य के साथ खिडवाल कर रहे है बल्कि समाज व राष्ट्र का भी अहित कर रहे है । संस्कृति का ज्ञान न होना हमारी शिक्षा नीति में नीतिज्ञ ज्ञान का अभाव भावी पीढ़ी ही नही भविष्य में सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए अहितकर होगा । अतः जरुरत है हमें आधुनिक शिक्षा में बदलाव की । लाखों रुपयों की योजनाएं चलाने के बजाए शिक्षा का सरलीकरण व प्राथमिक शिक्षा के साथ साथ व्यवसाईक पाठ्यक्रम भी सिखाये जाए ताकि वे बच्चे जो इस समय (आज के दौर में ) हमारे देश में सबसे ज्यादा है जरा सी पूजी के साथ व्यसाय कर अपने परिवार का भरण-पोषण के साथ साथ अपनी स्कुली प्राथमिक शिक्षा की तालिम भी लेते रहे स्कुलों में भोजन व्यवस्था व मुक्त की किताबे, स्कुल ड्रेस, स्कालशिप से गरीब बच्चे स्कुल की ओर आकृर्षित जरुर हुए है, लेकिन वे गरीब बच्चे जो माँ-बाप के साथ स्वयं भी परिवार की आय स्त्रोत के लिए मजदुरी करने पर बाध्य है उनके लिए ऐसी योजनाएँ किस काम की अतः हमारी सरकार को इस तरह के बच्चों को शिक्षित बनाने के लिए प्राथिमक शिक्षा के साथ साथ व्यवसायिकता सम्बन्धी पाठ्यक्रम दि.ये जाए ताकि वे पढ़ाई के साथ साथ बालमजुदरी के लिए बाध्य न रहें। गाँधी जी ने कहाँ था कि - पाठशाला चरित्र निर्माण, शिक्षा रोजगार का साधन स्थली होना चाहिए वह शिक्षा जो मनुष्य को कम्प्युटर की भांति ज्ञैन-सामग्री का विश्वकोश, रोबोट के समान मानवशुन्य पशुता की श्रेणी में न ला खण्डा करें मानवी जीवन का महत्व है उसके विचारों आदशों से । अतः गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा नीति का स्वप्न आज भी कितना प्रासंगित है अमल योग्य कितना आवश्यक है अनैतिकता की बेडियाँ तोडने के लिए हमें उनके आदर्शो को पूर्नः अपनाना होगा ।
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