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समय नहीं है....

दस घंटे का सफर में दो-चार घंटे में पूरा हो जाता है फिर भी हमें लगता है कि  समय नहीं है जो मैसेज में महीनों में मिलते थे   सेकंड में मिल जाते हैं।  फिर भी हमें लगता है समय नहीं है।  सात समुंदर दूर बैठे व्यक्ति को देखने के लिए हम सालों तरस जाते थे अब महज कुछ सेकंड में उनसे आमने-सामने बात भी हो जाती है फिर भी हमें लगता है कि समय नहीं है। बैंक की लाइन में घंटों खड़े रहने की जगह मोबाइल पर सेकंड में लेनदेन हो जाता है फिर भी समय नहीं है।  अस्पताल में जांच पड़ताल कई महीने में होती थी अब बस कुछ घंटों में हो जाती है फिर भी समय नहीं है। यहां तक की किताब पढ़ने के लिए समय नहीं है  अखबार पढ़ने के लिए समय नहीं है । मम्मी पापा को फोन करने तक का समय नहीं है प्रकृति को महसूस करने का समय नहीं है । लेकिन लेकिन लेकिन ____  क्रिकेट मैच के लिए समय होता है आईपीएल देखना हो तो समय होता है नेटफ्लिक्स के लिए समय होता है।  हमें  कुछ जरूरी करना होता है तो भी समय निकलता है ।  सोशल मीडिया के लिए तो हर समय साथ ही होता है।  बस खुद के लिए कोई समय नहीं है ।  सच्च...

मन रे तू........

“मन से बाहर निकल जाइए, और आप जान लेंगे कि यह क्या है: वह जो आदि रहित और अनंत है। मन का आदि है और अंत भी है, इसलिए मन और वास्तविकता कभी नहीं मिल सकते। मन शाश्वत को नहीं समझ सकता। और यदि आप सचमुच समझना चाहते हैं, तो आपको मन को खोना पड़ेगा। आपको मन को खोने की कीमत चुकानी पड़ेगी। लेकिन यदि आप ज़िद करेंगे, ‘मुझे तो मन के माध्यम से ही समझना है,’ तो केवल एक ही चीज़ संभव है  मन धीरे-धीरे आपको यकीन दिला देगा कि कुछ भी ऐसा नहीं है जो आदि रहित हो, कुछ भी ऐसा नहीं है जो अंतहीन हो, कुछ भी ऐसा नहीं है जो अज्ञेय हो। धीरे-धीरे, वास्तविकता से संपर्क करने की कला सीखिए, बिना मन के बीच में आने के। कभी-कभी जब सूरज अस्त हो रहा हो, बस बैठ जाइए और सूरज को देखते रहिए, उसके बारे में सोचिए मत — केवल देखिए, मूल्यांकन मत कीजिए, यहाँ तक कि यह भी मत कहिए ‘कितना सुंदर है!’ जिस क्षण आप कुछ कहते हैं, मन बीच में आ जाता है यदि आप सचमुच समझना चाहते हैं, तो आपको मन को खोना पड़ेगा। आपको मन को खोने की कीमत चुकानी पड़ेगी। लेकिन यदि आप मन का ही उपयोग करने पर ज़ोर देंगे, तो केवल वही ज्ञान मिलेगा, केवल वही चीज़ें मिलेंगी जिन...

सच्चाई खुद की

जरूरत से ज्यादा महत्व  आप टूटेंगे और वे आदत बना लेंगे. हम इंसान हैं. प्यार करते हैं, महत्व देते हैं, ख्याल रखते हैं. कभी-कभी अपनी सीमाएं लांघकर, अपने आराम और ज़रूरतों को पीछे छोड़कर, दूसरों को समय, अवसर और स्नेह दे बैठते हैं. लेकिन सच यह है  जब आप किसी को उसकी ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत देते हैं, तब आप अनजाने में अपने ही अपमान की नींव रख रहे होते हैं. यह बात कड़वी है, लेकिन सच है. जब आप किसी को बार-बार प्राथमिकता देते हैं, तो धीरे-धीरे वे यह मानने लगते हैं कि आप तो हमेशा उपलब्ध हैं. जब भी कॉल करेंगे, आप उठाएंगे. जब भी जरूरत होगी, आप दौड़कर आ जाएंगे. फिर वे आपको कोई "खास" नहीं मानते, बल्कि "आसान" समझने लगते हैं. वे इस आदर और सहयोग को सराहना नहीं, अधिकार समझने लगते हैं. आपका समय, आपकी सहानुभूति, आपकी चिंता सब कुछ उनके लिए एक आदत बन जाती है. उन्हें महसूस ही नहीं होता कि आप क्या खो रहे हैं, कितना दे रहे हैं. धीरे-धीरे वे आपकी सीमाएं लांघना शुरू कर देते हैं. क्योंकि आपने एक बार, दो बार, दस बार चुपचाप सह लिया. अब उन्हें लगता है कि आप सब कुछ सह सकते हैं. और जब आप थकने लगते ह...

सामान्य जीवन

आज से तीसेक साल पहले की बात बतलाऊँ। तब अमीर भी इतने अमीर नहीं होते थे कि एकदम अलग-थलग हो जावें। अपना लोटा-थाली अलग लेकर चलें। पंगत में सब साथ ही जीमते थे। मिठाइयों की दुकान पर वही चार मिठाइयाँ थीं, बच्चों के लिए ले-देकर वही चंद खिलौने थे। जब बाज़ार ही नहीं होगा तो करोड़पति भी क्या ख़रीद लेगा? अमीर से अमीर आदमी भी तब दूरदर्शन पर हफ्ते में दो बार रामायण, तीन बार चित्रहार और नौ बार समाचार नहीं देख सकता था, क्योंकि आते ही नहीं थे। देखें तो उस ज़माने में तक़रीबन सभी एक जैसे ग़रीब-ग़ुरबे थे। सभी साइकिल से चलते थे। कोई एक तीस मार ख़ां स्कूटर से चलता होगा। हर घर में टीवी टेलीफोन नहीं थे। फ्रिज तो लखपतियों के यहां होते, जो शरबत में बर्फ़ डालकर पीते तो सब देखकर डाह करते। लोग एक पतलून को सालों-साल पहनते और फटी पतलून के झोले बना लेते। चप्पलें चिंदी-चिंदी होने तक घिसी जातीं। कोई लाटसाहब नहीं था। सब ज़िंदगी के कारख़ाने के मज़दूर थे।  जीवन जीवन जैसा ही था, जीवन संघर्ष है ऐसा तब लगता नहीं था। दुनिया छोटी थी। समय अपार था। दोपहरें काटे नहीं कटतीं। पढ़ने को एक उपन्यास का मिल जाना बड़ी दौलत थी। दूरदर्शन पर कोई फ़िल...