जियो तो ऐसे जियो
( सपना पींचा जी ने लिखा है )
मैं जितने साल जी चुकी हूँ*,
*उससे अब कम साल मुझे जीना है*
यह समझ आने के बाद
मुझमें यह परिवर्तन आया है:
-किसी प्रियजन की विदाई से,*अब मैं रोना छोड़ चुकी हूँ क्योंकि आज नहीं तो कल मेरी बारी है।*
-उसी प्रकार, अगर मेरी विदाई अचानक हो जाती है, तो मेरे बाद लोगों का क्या होगा, यह सोचना भी छोड़ दिया है क्योंकि मेरे जाने के बाद कोई भूखा नहीं रहेगा।
-सामने वाले व्यक्ति के पैसे, पावर और पोजीशन से अब मैं डरती नहीं हूँ।
-खुद के लिए सबसे अधिक समय निकालती हूँ। मान लिया है कि दुनिया मेरे कंधों पर टिकी नहीं है। मेरे बिना कुछ रुकने वाला नहीं है।
-छोटे व्यापारियों और फेरीवालों के साथ मोल-भाव करना बंद कर दिया है। कभी-कभी जानती हूँ कि मैं ठगी जा रही हूँ, फिर भी हँसते-मुस्कुराते चली जाती हूँ।
-कबाड़ उठाने वालों को फटी या खाली तेल की डिब्बी वैसे ही दे देता हूँ, पच्चीस-पचास रुपये खर्च करती हूँ, जब उनके चेहरे पर लाखों मिलने की खुशी देखती हूँ तो खुश हो जाती हूँ।
-सड़क पर व्यापार करने वालों से कभी-कभी बेकार की चीज़ भी खरीद लेती हूँ।
-बुजुर्गों और बच्चों की एक ही बात कितनी बार सुन लेती हूँ, कहने की आदत छोड़ दी है कि उन्होंने यह बात कई बार कही है।
-गलत व्यक्ति के साथ बहस करने की बजाय मानसिक शांति बनाए रखना पसंद करती हूँ।
-लोगों के अच्छे काम या विचारों की खुले दिल से प्रशंसा करती हूँ। ऐसा करने से मिलने वाले आनंद का मजा लेती हूँ।
-ब्रांडेड कपड़ों, मोबाइल या अन्य किसी ब्रांडेड चीज़ से व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना छोड़ दिया है। व्यक्तित्व,विचारों से निखरता है।ब्रांडेड चीज़ों से नहीं, यह समझ गयी हूँ।
-मैं ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखती हूँ जो अपनी बुरी आदतों और जड़ मान्यताओं को मुझ पर थोपने की कोशिश करते हैं। अब उन्हें सुधारने की कोशिश नहीं करती क्योंकि कई लोगों ने यह पहले ही कर दिया है।
-जब कोई मुझे जीवन की दौड़ में पीछे छोड़ने के लिए चालें खेलता है, तो मैं शांत रहकर उसे रास्ता दे देती हूँ। आखिरकार, ना तो मैं जीवन की प्रतिस्पर्धा में हूँ, ना ही मेरा कोई प्रतिद्वंद्वी है।
-मैं वही करती हूँ जिससे मुझे आनंद आता है। लोग क्या सोचेंगे या कहेंगे, इसकी चिंता छोड़ दी है। चार लोगों को खुश रखने के लिए अपना मन मारना छोड़ दिया है।
-फाइव स्टार होटल में रहने की बजाय प्रकृति के करीब जाना पसंद करती हूँ। जंक फूड की बजाय बाजरे की रोटी और आलू की सब्जी में संतोष पाती हूँ।
-गलत के सामने सही साबित करने की बजाय मौन रहना पसंद करने लगी हूँ। बोलने की बजाय चुप रहना पसंद करने लगी हूँ। खुद से प्यार करने लगी हूँ।
*मैं बस इस दुनिया की यात्री हूँ, मैं अपने साथ केवल वह प्रेम,आदर और मानवता ही ले जा सकूंगी जो मैंने बाँटी है, यह मैंने स्वीकार कर लिया है*
-मेरा शरीर मेरे माता-पिता का दिया हुआ है, आत्मा परम कृपालु प्रकृति का दान है, और नाम माता-पिता का दिया हुआ है... जब मेरा अपना कुछ भी नहीं है, तो लाभ-हानि की क्या गणना?
-अपनी सभी प्रकार की कठिनाइयाँ या दुख लोगों को कहना छोड़ दिया है, क्योंकि मुझे समझ आ गया है कि जो समझता है उसे कहना नहीं पड़ता और जिसे कहना पड़ता है वह समझता ही नहीं।
-अब अपने आनंद में ही मस्त रहती हूँ क्योंकि मेरे किसी भी सुख या दुख के लिए केवल मैं ही जिम्मेदार हूँ, यह मुझे समझ आ गया है।
-हर पल को जीना सीख गई हूँ क्योंकि अब समझ आ गया है कि जीवन बहुत ही अमूल्य है, यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है, कुछ भी कभी भी हो सकता है, ये दिन भी बीत जाएँगे।
-आंतरिक आनंद के लिए मानव सेवा, जीव दया और प्रकृति की सेवा में डूब गयी हूँ। मुझे समझ आया है कि अनंत का मार्ग इन्हीं से मिलता है।
*देर से ही सही, लेकिन समझ आ गया है*
*शायद मुझे जीना आ गया है।*
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