मेरे बारे में भी

किताबें हर प्रकार की पसंद हैं, कोशिश होती है पढ़ पाऊॅं। टेलीविज़न से बहुत दूर हूँ, बोलता  बहुत कम हूँ, सुनता भी हूँ।  खिलंदड़पन स्वभाव में है और उदास होना बिल्कुल पसंद नहीं । ख़ुद ही ख़ुद को सांत्वना देकर मुस्कुरा लेना मतलब कमाल की अनुभूति होती है वो। बेवजह की चीज़ें करना जो लोगों को रास नहीं आए घरेलू काम-काज़ ,
 शब्द हल्के पसन्द हैं पर बातें घुमा के करता हूँ और लिखने में भी कुछ ऐसा ही है। कहावतों से बड़ा प्रेम है वो भी अपनी मातृभाषा में बोली जाने वाली; मतलब उलझा हआ हूँ और लोगों को उलझा देना पसन्द है।

स्वभाव से वाचाल के अलावा भावुक और संवेदनशील बाक़ियों से थोडा ज़्यादा हूँ ऐसा लगता है क्योंकि अभिनय करते हुए भी कोई रोए तो रो पड़ता हूँ, कहानियाँ पढ़ते हुए किरदार में उतर जाना और फिर क़िस्से को ख़ुद पर बीतता हुआ महसूस करना ये भी अजीब आदत है मेरी। भगवद्गीता पढ़ना बहुत पसंद है जब भी मोहमाया का अनुपात बढ़ जाता है ज़िन्दगी में, तो यही पुस्तक सन्तुलन बनाने में मदद करती है।  पीछे बात करना नहीं आता इसलिए लोग टिकते कम हैं ।
 दुनिया का कोई भी इंसान हो भले ही व्यक्तिगत रूप से मेरी लड़ाई हो चुकी हो पर न तो मुझे वो ग़लत लगता है न ही मुझे कोई दिक्क़त होती है। उसकी अपनी सोच मेरी अपनी; सुखी रहने का बेहतरीन फंडा है ये “बीती ताहि बिसार दे”।
ये दरसअल आत्म प्रशंसा करने जैसा है पर आपका सवाल ही आत्मप्रेमी बना रहा क्या कर सकता हूँ? चीज़ें जो हो रही होती हैं आसपास थोड़ा जल्दी उनमें ढल जाता हूँ, ग्रामीण जीवन बहुत पसंद है शोर-शराबा भीड़-भाड़ बहुत ज़्यादा लोग ये सब रास नहीं आते। हाँ, पर हमारा संयुक्त परिवार है और ऐसा परिवार पसन्द है। बदलने का और ढल जाने का ऐसा है कि आजकल तहज़ीब और तमीज़ को परे रख आता हूँ जब सामने वाला बदतमीज़ हो। पहले प्यार की गोली खा रखी थी अब यथार्थ को निगलने की कोशिश की जा रही है। लापरवाह जरा भी नही हूँ ओर परवाह इतनी की अजनबी के लिए भी कुछ ना कुछ अच्छा या मदद करने का भाव रहता हैं हमेसा।
 पाबन्दियों में पला-बढा हूँ इसलिए दुनिया घूमने की बड़ी इच्छा है। सपने भी ख़ूब देखता हूँ; एक दिलचस्प सा सपना ये है कि किसी पहाड़ की चोटी पर बैठकर कहानियाँ लिखूँ , रात को सड़कों पर घूमते हुए महसूस करूँ वो अकेलापन स्ट्रीटबल्ब के नीचे बैठकर उन भावनाओं से पन्ने रंग दूँ। बहुत बोलने से कभी कभी ख़ुद भी ऊब जाता हूँ और तब मैं एक अलग क़िस्म का होता हूँ चुपचाप सा अपने ही ख़यालों में। 
कुल मिलाकर बात बस इतनी है कि मैं सुलझे हुए धागों से बुना उलझन का लबादा हूँ। ख़ुद को समझने की कोशिश लगातार जारी है औऱ दुनिया को भी।
। दूसरी चीज़ जिस से मैं चिपका हआ पया जाता हूँ वो है मेरा फोन; दिनभर कुछ ना कुछ चलता है इधर लिखना-पढ़ना बातें-वातें। हाँ, जब लोगों के साथ होता हूँ तो ये आशिक़ी भूलनी पड़ती है। बहरहाल मैं बोलता हूँ बहुत कुछ पर वो नहीं जो चाहता हूँ मैं बहुत सी बातें करके किताबो की तरह ही ख़ामोश रहता हूँ!

ये मैं हमेशा ख़ुद के लिए कहता हूँ जो हूँ नज़र वही आता हूँ लेकिन एक हिस्सा ऐसा है जिसे मैंने छुपा के रखा है दुनिया से सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मुझे लगता है उस हिस्से को पढ़ने का हुनर दुनिया नहीं जानता। मैं साधारण हूँ और असाधारण होते हुए भी साधारण बने रहना चाहता हूँ ;बस इतनी सी बात है। और हाँ आत्मप्रशंसा के चक्कर में मैंने आपका धन्यवाद ज्ञापन नहीं किया बहुत-बहुत आभार आपका मुझे इस लायक समझने के लिए और अपना बेशकीमती समय मुझ पर खर्चने के लिए।

Anubhav: ख़ैर! ये बताईए कि लिखना कब, क्यों और कैसे शुरू किया?

मेने, लिखना कब यही कोई 10–12 साल का था  तब हमारे गांव में पंजाब केसरी नाम का अखबार आता था वह पढ़ना शुरू किया उसके बाद 1996 में दैनिक भास्कर आना शुरू किया और उसके बाद कई तरह की किताबें पत्र पत्रिकाएं आती थी वह सब पढ़ता था मैं
 आज कल तो सब ऑनलाइन हो गया है लेकिन लगाव तब से ही था। घर में बहुत सारे पत्र-पत्रिकाएं आते रहे हैं।  टेलीविज़न नहीं था घर में, पर रात को बीबीसी सुन के उस न्यूज़ को समझ के अपने नोटबुक में लिखना और जितनी भी पत्रिकाएं आयी होती थी उनको पढ़ जाना अनिवार्य था। भले ही वो कॉमिक्स ही क्यों ना हो। किताबें सबसे अच्छी मित्र हैं ये समझा दिया गया था वक़्त ने मुझे।

ये तो कब था, अब क्यों और कैसे की बात करते हैं:- 
दरअसल मैं चीज़ों को बहुत ज़्यादा महसूस करता हूँ भावुक होने की वज़ह से और यही कारण रहा लिखने का; जो कह नहीं पाया उसको पन्नों पर उतार दिया। कैसे का ये क़िस्सा है कि किसी पत्रिका में बाल कविता भेजनी थी तुरन्त ही कोशिश की तो बन गयी। भेज दी, और कलम चलने लगी।

 किताबों की भूख हमेशा से थी, है और रहेगी। कहने का तात्पर्य है कि हमें जो भी मिलता गया हम पढ़ते गए। 
‘हमारे साथ जो होता है, वह हमें उतना दुःख नहीं पहुँचाता जितना कि उस पर हमारी प्रतिक्रिया। ज़ाहिर है घटनाएं हमें शारीरिक या आर्थिक रूप से दुःख पहुँचा सकती हैं और हमारे जीवन को कष्टकारी बना सकती हैं। परन्तु यह ज़रूरी नहीं है कि इससे हमारे चरित्र या मूलभूत पहचान को ज़रा भी चोट पहुँचे। हमारे सबसे मुश्किल अनुभव दरअसल वे उपकरण हैं जो हमारे चरित्र को ढालते हैं हमारी आंतरिक शक्तियों का विकास करते हैं, हमें भविष्य में मुश्किल परिस्थितियों का सामना करने की स्वतंत्रता देते हैं और दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरक शक्ति देते हैं।’ ये प्रभावित होने वाली लिस्ट ज़रा लम्बी?
 थी। इसके अलावा गाने का बहुत शौक़ है यदा-कदा लोगों को पकाता भी हूँ, संगीत सीखा नहीं है सीखने की इच्छा ह
शौक़ है प्रतिभा नहीं। हाँ, तो ऐसा है कि मैं बहुत डूब के पढ़ता हूँ कुछ भी। पहले भी कहा कि किरदारों से ख़ुद को जोड़ लेता हूँ। ये कहना तो छोटा मुँह बड़ी बात होगी पर गुलज़ार साहब, राहत इंदौरी, जावेद अख्तर, निदा फाजली और कैफ़ी आज़मी  की जो नज़्में हैं वो भीतर तक उतरती हैं और उन्हें पढ़कर कई दफ़ा महसूस होता है कि ये मुझे लिखना चाहिए था जबकि मैं जानता हूँ मैं लिख नहीं सकता, लेकिन भावनाएं जुड़ जाती हैं तो रश्क हो जाना भी लाज़िमी है। 
  जो मनुष्य प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए तैयार रहता है परिस्थितियाँ उसी के लिए अनुकूल होती है। चाहें अपने लेखन में तो वो क्या होगा?

 बदलाव तो एक सतत प्रक्रिया है चाहे वह जीवन में हो या लेखन में, दोनों ही बस सिखाते जाते हैं और हम सीख के बदलाव किए जाते हैं। निर्भर हम पर करता है कि इस बदलाव को हम कितना ज़रूरी या ग़ैर ज़रूरी समझते हैं। तो लेखन में बदलाव ये करना है कि हिंदी से जो लगाव है उसको प्रेम में बदल देना है इतना जानना है, ये प्रक्रिया पूरे जीवन चलेगी। मैं अभी शैशव अवस्था में हूँ लेखन के साहित्य को जाना नहीं है, भावनाओं से ज्ञान तक का सफ़र तय करना बाक़ी है। अभी बस महसूस जो चीज़े होती है और जैसे भी शब्द आते हैं लिख देता हूँ, इसे साहित्यिक बनाने का बदलाव करना है।


: शुरुआत में मुझे बस शौक़ था कोई ख़ुशी हो तो पन्नों से बाँट लो, कोई दर्द हो तो पन्नों से बाँट लो बस। जब आठवीं में था तो एक शिक्षक महोदय ने सलाह दी डायरी लिखने की, और वो कुछ ऐसे की प्रत्येक दिन अच्छा क्या किया बुरा क्या किया फिर कुछ एक दिन ये चला। तब तक ये ख़ुद भी नहीं पता था कि लेखन मेरे लिए कितना महत्वपूर्ण है पर बाक़ी सबको वो दिखने लगा था, भैया था वो जिसने मुझे हिंदी पढ़ने की और लिखने की सलाह दी थी और मैंने मज़ाक उड़ा दिया था। एक वो समय था, अब ये एक समय है कि पहले लोग मुझे सलाह देते थे लिखो अब मुझे लड़ना पड़ता है कि लिखने दो। जीने के लिए चार वक़्त की रोटी शांतिपूर्ण कमरा और उसमें कलम और किताबें चाहिए बस अब क्योंकि अब इस स्याह में स्याही ढूंढ लिया है मैंने। बस पढ़ना है सीखना है, ख़ूब सीखना है और लिखते रहना है। मैं लेखक नहीं हूँ अभी ख़ुद के लिए, ख़ुद के सुकून के लिए, ख़ुद को तलाशने के लिए और शांति के लिए लिखता हूँ। इसलिए लिखने से स्वार्थ जुड़ा है, लेखन है तो मैं हूँ, इतनी सी बात है बस कि क़त्ल करना बहुत आसान है मेरा, तुम कलम छीन लो बस मेरे हाथों से।

 कहने को अब भी शेष तो बहुत है जीवन के जैसे! इतना ही कि किसी को भी अपने हिसाब से ना आंके, उसका अपना किरदार है, उसकी अपनी कहानी। ज़िन्दगी से एक ही चीज़ सीखी है अब तक कि कुछ भी एक जैसा नहीं रहता है ना लोग, ना हालात यहाँ तक कि आपका अपना स्वभाव भी, इसलिए कोई भी वक़्त अगर सकून दे तो जी लीजिए, ये सोचकर कि दोबारा आए न आए। मैं चीज़ों से ऊब जाता हूँ और फिर बदलाव ख़ुद ही आ जाता है। सोचा था कि समभाव से सब अच्छा होता है, अब समझ आता है कि जैसे को तैसा होना चाहिए था।

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