कमी....

परवाह मत कीजिए, कि आप अकेले हैं और भीड़ आपके खिलाफ़। परवाह मत कीजिए, कि कातिल को कातिल ठहराने की सौ वजहें है; जबकि बेकसूर ठहराने को एक। परवाह मत कीजिए, कि भीड़ कितने गुस्से में है और आपके साथ क्या सलूक करेगी। क्योंकि अगर आप इन बातों की परवाह करेंगे तो यकीनन, आपका ज़मीर मरा हुआ होगा।

मैं मानता हूँ, कि भारतीय न्याय व्यवस्था बड़ी जटिल और लेट-लतीफी है। और यह एक लोकतांत्रिक देश के लिए बड़े शर्म की बात है। परन्तु मुझे अपने देश के कानून व्यवस्था पर इस बात का गर्व भी है, कि ये एक कुसूरवार को भले ही छोड़ देती है मगर एक बेकसूर को फाँसी के फंदे में नहीं लटकाती। 

मुझे नहीं पता कि इतने गंभीर मुद्दों पर आजकल फिल्मे क्यों नहीं बनती। शायद इसलिए क्योंकि फिल्म इंडस्ट्री भी एक व्यापार का अड्डा बन कर रह गया है। या शायद इसलिए कि ऐसी फिल्मो से प्रोड्यूसर की लागत भी नहीं निकलती। अव्वल तो यह कि ऐसी फिल्मो को समझने के लिए पेशेन्स और हाई थिंकिंग दोनों ही की जरूरत पड़ती है। और विडम्बना यह, कि हम भारतीयों में इन्हीं दोनों चीजों की सख़्त कमीं पायी जाती है। 

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