सोशल मीडिया का संचार
हम सब एक मीडिया समाज में रहने लगे हैं । अति संपर्क एक हक़ीक़त है और अब आदत । एक दूसरे को देखकर एक दूसरे के जैसा होने लगे हैं । टीवी पर नहीं होते हैं तो मीडिया के किसी और माध्यम में होते हैं । दुनिया भर में इस विषय पर शोध होने लगे हैं । इसकी आदतों से निजात दिलाने के लिए मनोचिकित्सक पैदा हो गए हैं । हम सबको लगता है कि आधुनिक होने का मतलब ही है निरंतर संवाद । इस प्रक्रिया में अध्ययन और चिन्तन ग़ायब हो गया है । देखना बंद हो गया है । मेरी बहुत इच्छा है कि इस पर पढ़ूँ और शोध करूँ ।
हम इस भ्रम में रहने लगे हैं कि सम्पर्कों और सम्बंधों का विस्तार हो रहा है । ज़रा आप फ़ेसबुक या व्हाट्स अप के संबंधियों की सूची पर ग़ौर कीजिये । ट्वीटर पर ज़रूर कभी भी कोई नया आ जाता है मगर आप जिनका अनुसरण करते हैं उस सूची पर ग़ौर कीजिये । मामूली हेरफेर के साथ सब स्थायी हो चुके हैं । हम सबका एक कुआँ बन चुका है । नदी होने का भ्रम पाले हम सोशल मीडिया के छोटे छोटे कुएँ में रह रहे हैं । जिसमें कई बार अलग अलग कुओं से आए मेंढक टरटराते रहते हैं । हमें लगता है कि यही जगत और जागरूकता का रूप है । जबकि ऐसा नहीं है । हमने इसी को स्वाभाविक मान लिया है । बाज़ार ने विभिन्नता की उत्सुकता को कुंद कर दिया है । हम सबके अपने अपने ब्रांड तय हैं । शर्ट से लेकर परफ़्यूम तक के ब्रांड । हम इन सब उत्पादों के चयन में पहले से कम परिश्रम और प्रयोग करते हैं । हो सकता है कि आपका यह लेखक उम्र के किसी स्थिर पड़ाव में आ गया है ! लेकिन क्या यह सही नहीं कि ब्रांड बनने की छाया सोशल मीडिया में हमारे व्यवहार में दिखती है ।
सोशल मीडिया पर मौजूद हर शख़्स एक ब्रांड है । वो ब्रांड ही बनने के लिए आतुर है । जो है उससे कहीं अलग । हमें मतलब भी नहीं कि उस ब्रांड की हक़ीक़त क्या है । हमें कहाँ इस बात से फ़र्क पड़ता है कि जिस ब्रांड को हम धारण करते हैं वो अपने कर्मचारियों से कैसा बर्ताव करता है । बाहरी रूप ही सत्य है । इसी का आत्म प्रदर्शन है । हम सब कुछ अलग लगना चाहते हैं परन्तु इस क्रम में एक जैसा हो जा रहे हैं ।
मैं खुद के बारे में बता सकता हूँ । चंद लोगों से चैट तक मेरी दुनिया सिमट गई है । आपके लिए भी सँभव नहीं है कि एक सीमित संख्या से ज़्यादा लोगों से सम्पर्क रख सकें । जिनसे बात करता हूँ उनसे या तो कभी मुलाक़ात नहीं है या बहुत दिनों से नहीं है । शब्दों और वाक्यों के ज़रिये मेरा आभासी रूप है और मेरे पास आपका । कई बार लगता है कि आप मुझे वो समझते हैं जो मैं हूँ नहीं और कई बार ऐसा ही मैं आपके बारे में सोचता हूँ । हम सब लगातार प्रोजेक्ट होने की प्रक्रिया में है । पूरी दुनिया में इस व्यवहार पर गहन शोध हो रहे हैं । शायद भारत में भी हो रहे होंगे मगर अभी सार्वजनिक बहस का हिस्सा नहीं बन पाये हैं ।
इस प्रोजेक्ट होने की प्रक्रिया में हमारी तस्वीरें कुछ और ही बोल रही होती हैं । हमारी होते हुए भी हमारी नहीं लगती । हम तस्वीरों के ज़रिये खुद के देखे जाने का तरीक़ा भी तय कर रहे हैं । सेल्फी । क्लोज़ अप । यह हमारा आभासी व्यक्तित्व हमारे असल को भी प्रभावित कर रहा है । शब्दों के आर पार भावनात्मक रिश्ते बन रहे हैं । कई मामलों में यह अच्छा है और कई मामलों में ख़तरनाक । पर यह तो वास्तविक जगत में भी है । आप जिससे मिलते हैं उसका बाहरी रूप ही तो जानते हैं । सही ग़लत होने के ख़तरे वहाँ भी हैं । एक फ़र्क है । सोशल मीडिया का हर संवाद एक दस्तावेज़ है ।
हद तो तब है जब हम लिखित संवाद भी इस भ्रम में करते हैं कि कोई और नहीं पढ़ रहा या जिसे पढ़ना है पढ़ ले क्या फ़र्क पड़ता है । शंका और आत्मविश्वास की दीवारों को रोज़ तोड़ते हैं । हमारे भीतर शब्दों की एक ऐसी दुनिया बन जाती है जो हर वक्त चलायमान है । हम लगातार संवाद की प्रक्रिया में है । दिमाग़ शांत नहीं होता । बात करने का दायरा भी मौत के कुएँ की तरह है जिसमें हम नीचे से रफ़्तार पकड़ते हुए ऊपर पहुँचते हैं और फिर नीचे आ जाते हैं । बाक़ी लोग झाँक कर तमाशा देख रहे होते हैं ।
एक बहुरूपिया संसार रचा जा रहा है । जो इसके दायरे से बाहर है वो कैसे जी रहा है । जब कभी सब बंद कर देता हूँ तो कई लोगों की याद आती है । अकुलाहट होती है । सामान्य होने में वक्त लगता है । कई लोगों ने आहत होने की सहनसीमा का विस्तार किया है तो कुछ ने संकुचित किया है । यहाँ बात करना जोखिम का काम हो गया है । सबकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने का इम्तहान है सोशल मीडिया में संवाद । हम सब एक सेना में बदल चुके हैं । टिड्डी दल की तरह हमला करते हैं । हमला झेलते हैं । जल्दी ही सोशल मीडिया के पन्नों पर विश्व युद्ध सा होने वाला है ।बल्कि छोटे मोटे कई युद्ध या तो हो चुके हैं या चल रहे हैं । इसमें मारे जाने वाले या घायल वैसे नहीं होंगे जैसे असल में होते हैं । बल्कि दिमाग़ी रूप से आहत लोगों की संख्या बढ़ेगी । उसके रूप बदल जायेंगे । कई लोगों को इस बेचैनी की प्रक्रिया से गुज़रते देखा है ।
मैं यही जानना चाहता हूँ कि इन सबने हमें कैसे बदला है । आप कैसे बदले हैं । कहीं हम पहले से ज्यादा अकेले नहीं हुए हैं । निरंतर संवाद ने समाज को जागरूकता के नाम पर अंध श्रद्धा दी है या सचमुच यह कोई अलग समाज है जो सोचने के स्तर पर पहले से कहीं अधिक जागरूक और सजग है । पर आप जानने के लिए कितना प्रयास करते हैं । कहीं हम अपने जाने हुए को ही तो नहीं मथते रहते हैं जहाँ तथ्य पीछे रह जाता है और भाव ऊपर आ जाता है । कितने लोग हैं जो निष्ठाओं के आर पार जाकर रोज़ जानने और न जानने के बीच की यात्रा करते रहते हैं । आप हैं तो बताइयेगा ।
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