स्त्री-पुरुष
..कोमलता को स्त्री_से_उत्पन्न हुआ माना गया है.. और इंसान की ज्यादातर मूलभूत भावनायें कोमल मानी जा सकती हैं,तो कहा जा सकता है कि ज्यादातर मूलभूत भावनायें स्त्री से उत्पन्न हैं.. जैसे प्रेम.. तो शायद पुरुष को प्रेम समझने के लिए #स्त्री_होना_पड़े.. ।
..विवाह के बाद अपने अस्तित्व की नए सिरे से खोज करती है स्त्री, पुरुष को त्याग समझने के लिए भी स्त्री होना पड़े शायद.. स्त्री प्रसव-पीड़ा सह कर जन्म देती है पुरुष को, आह पुरुष को पीड़ा समझने के लिए भी शायद स्त्री होना पड़े.. ।
..तो कुल मिलाकर शायद पुरुष को ज्यादातर मूलभूत भावनायें समझने के लिए स्त्री होना पड़े, कभी-कभी सोचता हूँ, पुरुष के पास अपना क्या है.. पुरुष स्त्री के मुकाबले भावनात्मक स्तर पर इतना कमजोर रहा हमेशा, कि उसे हमेशा ये डर रहा कि स्त्री उस पर हावी हो जाएगी.. ।
..कुछ मूल भावनायें जो शायद पुरुष ने ईजाद की, वो थी छल, बदला, अधिकार.. स्त्री पर अधिकार जमाने से शुरू हुई, अधिकार जमाने की प्रवृति के नशे में पुरुष ने ईज़ाद किये धर्म, पुरुष ने ईज़ाद किये मुल्क, और उसने चाहा अन्य मुल्कों, धर्मों और सभ्यताओं पर अधिकार जमाना या उन्हें नष्ट करना.. और इस तरह उसने #ईज़ाद_किये_युद्ध.. ।
..एक काम जो पुरुष को लगता है उसे अधिकार था, वो था नियम बनाना, उसने बड़े ही अधिकारपूर्वक नियम बनाये.. अब चूंकि नियम बनाने वाला खुद के लिए शिथिल नियम बनाएगा, और दूसरे के लिए कठोर.. तो कठोर नियम #स्त्री_के_हिस्से_आये.. जिसे स्त्री ने शायद अपनी नियति समझ स्वीकार किया, या स्वीकार किया शायद पुरुष की कमज़ोरी का मान रखने के लिए.. ।
..इसका एक दुखद पहलू यह रहा कि अधिकार जमाते-जमाते पुरुष स्त्री को अपनी ज़ायदाद समझ बैठा.. ख़ैर स्त्री को ज़ायदाद समझना पुरुष का सबसे घृणित काम नहीं था, #उसने_इससे_भी_घृणित_कुछ_ईज़ाद_किया, और वो था स्त्री का बलात्कार करना.. ।
..आज भी जब स्त्री को बराबर अधिकार देने की बात आती है, तो पुरुष को याद आती हैं परम्परायें, पुरुष अचानक हो उठता है धार्मिक, और बड़ी- बड़ी अदालतें भाग उठती हैं अपनी जिम्मेदारियों से.. बच जाती है औरत.. और उस #औरत_के_भीतर_एक_औरत.. ।
..आह, स्त्री अक्सर समझ बैठती है पुरुष को खुद जैसा, और सौंप देती है खुद को.. पुरुष खुश होता है मन ही मन अपनी फतह पर, और अक्सर ही इस छल के साथ पुरुष के हार जाने की शुरुआत होती है.. ।
( कुमार शिकस्तगी जी के लिखे हुये है ये अनमोल शब्द )
[ ..ये जो मैं कभी-कभी महिलाओं पर लिखता हूँ, वो मैं किसी को ज्ञान देने के लिए नहीं लिखता.. अस्ल में मैं अपने भीतर की महिला विरोधी सोच को मार रहा होता हूँ.. आपका नजरिया अलग हो सकता है.. । ]
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