मन की बात
दिमाग कुछ खाली सा हो चुका है। कुछ सोचने-समझने की इच्छा नहीं है। खुद से नाराजगी होने लगी है। लोग व्यस्त होते जा रहे हैं। मैं और खाली होता जा रहा हूँ। पढ़ने की इच्छा प्रबल नहीं होती दिख रही। लिखने की इच्छा मृत समान है। शक्ल जंगलियों सी होती जा रही है। अक्ल घास चरने जा चुकी है।
हर कुछ दिन में सबसे दूरी बना लेता हूँ। फिर कुछ दिन में वापस आ जाता हूँ। किसी का कुछ कहना अच्छा नहीं लगता। सुन कर हर बात अनसुनी कर देता हूँ। लोग कहते हैं अजीब हो चुका हूँ। मैं कहता हूँ हाँ मैं अजीब हो चुका हूँ। इतनी बकवास कोई ऐसे ही करने की हिम्मत नहीं करता। कोशिशें नाकाम होती जा रही हैं।
ये सब तुम्हारे साथ भी हो रहा होगा। मैं अकेला नहीं। तुम सब भी मेरे जैसे हो। हम सब खाली हो चुके हैं। हम भरे हुए हैं सिर्फ ऐसी बकवास से जो हम करने से कतरा रहे हैं। वो बकवास जो असल में एहसास हैं जिनसे हम भाग रहे हैं और फिर भी हर रोज उनसे मिलना पड़ता है। ये ज़िन्दगी से मेरी पहली मुलाक़ात नही है रोज नये अंदाज मे मिलती रहती है। आंसू ओर खुन निकलते चले आये हैं, आगे इससे मिलना हुआ तो और बहुत कुछ निकलेगा। किसी और का दुख किसी और की तकलीफ बस अपनी ही लगती है। बस मन मे ही उसके लिये दवा दुआ कि कामना कर लेता हु। मे किसी के लिये कुछ करना भी चाहु तो अपने सामर्थ्य से आगे नही जा सकता। ईजाजत नही मिलती कहीं से। फिर सोचता हु उपरवाले ने दिमाग का सामर्थ्य तय क्यो नही किया हर एक के लिये। खेर....,,...
फ़िलहाल मुझे एक बार फिर ये दुःख हुआ है कि मैंने एक निरर्थक प्रयास किया लिखने का। मेरी अभिव्यक्ति मर चुकी है। मैं मूक हो जाता हूँ। तुम बधिर हो जाओ। अंधे तो हम हैं ही कि सब एक ही हाल में हो कर भी कहते हैं "बस भाई सब बढ़िया है।"
माफ किजीयेगा अगर आपको कुछ गलत लगा हो तो।
में ऐसा ही हु कुछ भी लिख देता हू।
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