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जून, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

उत्तराखंड में तबाही

उत्तराखंड में हुई भारी तबाही ने विकास के मौजूदा मॉ़डल को लेकर गंभीर बहस खड़ी कर दी है। सवाल उठ रहा है कि क्या ये तबाही सिर्फ कुदरत का कहर है, या इसमें हम इंसानों का भी कोई योगदान है। जानकारों का साफ कहना है कि बांधों, बिजली परियोजनाओं और सड़कों के लिए पहाड़ों को छलनी करना बंद नही किया गया तो कुदरत और ज्यादा कहर बरसा सकती है। कुदरत के इस रौद्ररूप के आगे सब बेबस नजर आए एक बार फिर साबित हुआ कि कुदरत की ताकत से बढ़कर कोई ताकत नहीं। इसके कहर की कोई काट नहीं, लेकिन जरा ठहरिये कुछ और भी सवाल मुंह बाए खड़े हैं। सवाल ये कि क्या उत्तराखंड में खून की बारिश और मौत का सैलाब लाने वाले इस कहर के पीछे सिर्फ कुदरत की नाराजगी है या फिर इसका कोई और सबब भी है कहीं ऐसा तो नहीं कि कुदरत के सामने बेहद बौना नजर आने वाला इंसान, अपनी आसमान छूती हवस का खुद शिकार हो गया। सदियों से तपस्वियों की तरह अटल खड़े पहाड़ों को इंसानी लालच ने इस कदर छलनी किया कि हर तरफ ज़हर के सोते फूट पड़े, जिनकी हर बूंद में मौत का पैगाम है। अफसोस! हिमालय की गोद में बसे इस पहाड़ी राज्य की माटी की धड़कन को करीब से महसूस करने...

लिव-इन-रिलेशनशिप

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 बढ़ती भौतिकतावादी मानसिकता के कारण लिव-इन- रिलेशनशिप का चलन बढ़ता जा रहा है, जिसके कारण जिम्मेदारियों से जुड़े रिश्ते जैसे विवाह और परिवार की पारम्परिक मान्यताएं टूट रही हैं. हमारा समाज जो रुढ़िवादी होने के साथ-साथ परंपरावादी भी है, ऐसे किसी भी रिश्ते को जायज नहीं ठहराता जो महिला या पुरुष को शादी से पहले साथ रहने की इजाजत दें. और अगर ऐसे संबंधों के प्रभावों की चर्चा की जाए तो यह साफ हो जाता है कि लिव-इन-रिलेशनशिप जैसे रिश्ते खासतौर पर महिलाओं के लिए घाटे का सौदा साबित होते हैं. गौरतलब है कि ऐसे रिश्तों को न तो कानून का कोई विशेष संरक्षण प्राप्त है और न ही समाज का, इसके उलट हमारा समाज तो ऐसे रिश्ते और इनका निर्वाह कर रहे लोगों को गलत नज़रों से देखता है. हम इस बात को कतई नकार नहीं सकते कि महिलाएं आज भी सामाजिक रूप से कई बंधनों और सीमाओं में जकड़ी हुई हैं. और बिना शादी किए साथ रहना उनके लिए एक अपराध माना जाता है. सामाजिक दायरों और सीमाओं की बात छोड़ भी दी जाए तो वैयक्तिक दृष्टिकोण से भी इसके कई दुष्प्रभाव हैं.जिन संबंधों को पारिवारिक और सामाजिक तौर पर मान्यता न मिले, यह ...

कुदरत का कहर

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1.. उत्तराखंड में जो तबाही कुदरत ने मचाई, उसने पूरे राज्य की सूरत ही बिगाड़ कर रख दी। ऐसी आफत आई कि पूरा केदारनाथ बर्बाद हो गया। भगवान शिव की नग री को एक श्मशान में तब्दील कर के रख दिया है। खूबसूरत पहाड़ों के बीच बसा उत्तराखंड वीरान पड़ा है। हर तरफ बस तबाही की तस्वीर नजर आ रही है। मंदिर की घंटियों की जगह लोगों की चीख पुकार सुनाई दे रही है। चारो तरफ सेना लगी हुई है जैसे कोई युद्ध भूमि हो| आसमान से भी राहत का काम चल रहा है लेकिन वहां नज़ारे खुद बयां करतें हैं कि कैसे लहरों के तांडव ने केदारनाथ को बर्बाद कर दिया। इस हादसे में बचे लोग अपने घर के निशान ढूढ़ते नजर आ रहें है। सब कुछ बहती धारा और आसमान से गिरती आफत का शिकार हो चुका है| हजरों लोग तीर्थ के लिए आए थे, उनमें से कई काल के ग्रास में समां गए। अचानक आफत आई, और सब कुछ बहाकर ले गई। जो बचे हैं, वो मलबों में फंसे हैं, भूखे प्यासे अपनी जिंदगी के लिए जद्दो-जहद कर रहें हैं। सेना के जवान अपनी जान पर खेल कर दिन-रात बचाव और राहत काम में लगे हुए हैं लेकिन, इलाके की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि राहत में भी भारी दिक्कतें हो ...

भगवान हैं.क्या

Does GOD Exists? What is GOD? How he looks? What he is Doing? शीर्षक पढकर आप चौंक गये होंगे... क्या मैं नास्तिक हूँ... बिलकुल नहीं... फ़िर मैं क्यों ऐसी बात कह रहा हूँ ? लेकिन जरा आगे तो पढिये जनाब, कई सवाल हैं जो मेरे दिलो-दिमाग को मथते हैं और जिनका कोई तर्कपूर्ण जवाब मुझे नहीं मिलता, एक विशिष्ट प्रकार का "कन्फ़्यूजन" (Confusion) है..., इन विषयों पर हमेशा मैनें प्रत्येक बहस में सामने वाले से जवाब माँगा है, लेकिन नतीजा सिफ़र... वही गोल-मोल जवाब... वही ऊटपटाँग तर्क... लेकिन मेरी बात कोई मानने को तैयार नहीं... सोचा कि ब्लोग पर इन प्रश्नों को डालकर देखूँ, शायद कोई विद्वान मेरी शंकाओं का समाधान कर सके... और नहीं तो मुझ से सहमत हो सके... खैर बहुत हुई प्रस्तावना.... क्या आप भगवान को मानते हैं.... क्यों मानते हैं ? ... क्या आपको विश्वास है कि भगवान कहीं है ? ...यदि है तो वह क्या किसी को दिखाई दिया है ? ये सवाल सबसे पहले हमारे मन में आते हैं लेकिन बाल्यकाल से हमारे मनोमस्तिष्क पर जो संस्कार कर दिये जाते हैं उनके कारण हम मानते हैं कि भगवान नाम की कोई हस्ती इस दुनिया में ह...

आत्महत्या

आत्महत्या इस विषय पर लिखना ही कितना अजीब सा एहसास देता है क्यों कैसे कर लेते हैं आखिर कुछ लोग अपनी ज़िन्दगी को खत्म ..दो तीन दिन से हर चेनल जिया खान के बहाने फिर से आत्महत्या पर बात कर रहा है .. आत्महत्या करना भी अपने आप में कितनी हिम्मत से भरा फैसला है.... आखिर इस ज़िन्दगी से किसे लगाव नहीं होता, सभी इसे दिल से जीना चाहते हैं, पर आखिर ऐसा क्या हो जाता है ?बहुतमुश्किल काम है खुद को खत्मकरना ..क्य ों यह विचार आते हैं शायद इस लिए की जैसी ज़िन्दगी हमने चाही थी वैसी नहीं मिली इच्छा पूरी नहीं हुई तो खुद को खत्म कर दियाजाए या जिंदगी की असफलताएंइस और धकेल देती है ?आत्महत्या का निर्णय अक्सरएक पल में नहीं लिया जाता है। कई दिन व कई घंटे पहले इसके कुछ संकेत मिलने शुरू हो जाते हैं, जैसे कि व्यक्ति का डिप्रेशन में होकर मिलनसार न होना, लापरवाहीपूर्वक कार्य, हावभाव, स्वभाव व व्यवहार में परिवर्तन दिखाई देना, बात-बात में झल्ला जाना, जरूरत से ज्यादा बोलना या बिलकुल भी न बोलना, एकाकीपन, एकांत स्थान में बार-बार जाना, समय-बेसमय खाना या न खाना, जरूरत से कम या ज्यादा खाना आदि ऐसे संकेत हैं...

बनावटी दुनिया, बनावटी जीवन

  1...    बनावटी हो गयी ये दुनिया बनावटपन का घोर अँधेरा छा गया इस बनावटी दुनिया में, न जाने मै कहा खो गया...?? बनावटी है मंजिले बनावटी है रास्ते और सपनो में भी बनावटपन आ गया.. बनावटी है दोस्ती बनावटी है रिश्ते और प्यार में भी बनावटपन छा गया बनावटी हो गयी ये दुनिया बनावटपन का घोर अँधेरा छा गया इस बनावटी दुनिया में, न जाने मै कहा खो गया...?? बनावटपन ने लुटा न जाने कितने दिलो को....?? बनावटपन ने लुटा न जाने कितने घरो को......?? बनावटपन ने बर्बाद कर दिया , न जाने कितने जीवन को...?? बनावटी है भक्ति, बनावटी है शक्ति, और बिश्वास में भी बनावटपन आ गया बनावटी हो गयी ये दुनिया बनावटपन का घोर अँधेरा छा गया इस बनावटी दुनिया में, न जाने मै कहा खो गया...?? बनावटपन का खंजर असलीय का खून कर बदल रहा है हर एक मंजर बनावटी इस दुनिया के बावती है लोग बनावटपन फ़ैल रहा, फैलता है जैसे कोई रोग बनावटी मै नहीं था........ बनाव्त्पन का हुआ ऐसे असर कि मै भी बनावटी हो गया बनावटी हो गयी ये दुनिया बनावटपन का घोर अँधेरा छा गया इस बनावटी दुनिया में, न जाने मै कहा खो गया...?? बनावटी इस दुनिया में हर...

नक्सलवाद-एक सच्चाई

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हमारे देश में नक्सलवाद को राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री देश की सबसे बडी या आतंकवाद के समकक्ष समस्या बतला चुके हैं। अनेक लेखक भी वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नक्सलवाद के ऊपर खूब लिख रहे हैं। राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री का बयान लिखने वालों में से अधिकतर ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की वस्तुस्थिति जाकर देखना तो दूर, उन क्षेत्रों के जिला मुख्यालयों तक का दौरा नहीं किया है। अपने आप को विद्वान कहने वाले और बडे-बडे समाचार-पत्रों में बिकने वाले अनेक लेखक भी नक्सलवाद पर लिखते हुए नक्सलवाद को इस देश का खतरनाक कोढ बतला रहे हैं। कोई भी इस समस्या की असली तस्वीर पेश करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। या यह कहा जाये कि असल समस्या के बारे में उनको ज्ञान ही नहीं है। अनेक तो नक्सलवाद पर की असली तस्वीर पेश करने की खतरनाक यात्रा के मार्ग पर चाहकर भी नहीं चलना चाहते हैं। ऐसे में कूटनीतिक सोच एवं लोगों को मूर्ख बनाने की नीति से लिखे जाने वाले आलेख और राजनेताओं के भाषण इस समस्या को उलझाने के सिवा और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। राजनेता एवं नौकरशाहों की तो मजबूरी है, लेकिन स्वतन्त्र लेखकों से ऐसी अपेक्षा नहीं की...

" मेरी माँ' "

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'माँ' - अपने आप में मुकम्मल, छोटा सा एक लफ्ज़, जिसे परिभाषित करना आसान नहीं. कोई भी कविता, कोई भी कहानी, शब्दों का कैसा भी मनोहारी ताना-बाना इसे सम्पूर्णता में अभिव्यक्ति नहीं दे सकता. मेरी माँ दुनिया की सबसे बेहतर माँ है. मेरे पुरे परिवार का भार अपने कंधे पे उठाये जीवन के हर परेशानियों से लडती हुई आज उसकी आँखें थक गयी हैं. उसकी आँखें अब कमजोर हो गयी हैं. उसके शरीर पे उम्र का राक्षस हावी हो गया है. मेरे ह्रदय में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. क्या में उस कल्पवृक्ष को खो दूंगा जो कभी मुझे अपने छाँव में लोरियां गा कर मुझे चैन की नींद सुलाता था, क्या वो उँगलियाँ अब हमेशा के लिए मुझसे छिन जायेंगी जिन्हें पकड़ कर मैंने ज़िन्दगी के हर कठिन रास्ते को आसानी से पार किया ? क्या वो ममता और निस्वार्थ प्रेम भरी आँखें हमेशा के लिए बंद हो जाएँगी? वो आलिंगन जिसने धरती पर कभी मेरा स्वागत किया था क्या उससे में हमेशा के लिए बिछड़ जाऊंगा? मेरी माँ ने ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मेरा साथ दिया. कभी बुरे से लड़ने की ताकत दी तो कभी अच्छा करने पर होले होले मेरे बालों को सहला कर मेरा उत्साह...