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कुछ अनकही

कितने ही लोग होंगे इस दुनिया में जो हर रोज एक नया चेहरा ओढ़कर निकलते हैं। पर अपने भीतर तूफ़ान समेटे बैठे हैं और ऊपर से बिल्कुल शांत दिखते हैं। हर चेहरे की अलग कहानी है पर फिर भी उस पर मुस्कान, आँखों में चमक, लेकिन भीतर कहीं गहराई में कितनी ही बातें दबी रहती हैं।कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बोलना चाहते हैं, पर शब्द गले तक आते-आते रुक जाते हैं। उन्हें डर होता है कि उनकी बातें शायद कोई समझ ही न पाए। या फिर कोई हँस दे, मज़ाक बना दे। इस डर ने ही कितने दिलों को पत्थर बना दिया है। कितनी ही दफ़ा इंसान अपने सबसे गहरे दर्द को भी ऐसे छुपा लेता है जैसे वो कोई गुनाह हो। मैं सोचता हूँ, कितनी ही मोहब्बतें होंगी जो अधूरी रह गईं, कितने रिश्ते ऐसे होंगे जिनमें बात करने की जगह बस चुप्पी बची है। कोई है जो अपने ही घर में अनसुना रह गया है, कोई है जो भीड़ में गुम होकर भी अकेला महसूस करता है। कितने चेहरे होंगे जिनकी हँसी बस औपचारिक है, और कितनी आँखें होंगी जिनकी नमी कभी ज़ाहिर नहीं होती। ये सच है कि हर इंसान एक कहानी है, मगर बहुत कम कहानियाँ सुनी जाती हैं। हम सब भीतर ही भीतर बोझ उठाए रहते हैं, बिना ये जाने कि कोई ...

कल हो ना हो

मैंने हाल ही में एक किताब पढ़ी-“The Top Five Regrets of the Dying” जिसे एक नर्स Bronnie Ware ने लिखा है। वो हर दिन उन लोगों के साथ रहती थी जो ज़िंदगी के आख़िरी मोड़ पर थे। मरने से पहले उन्होंने पाँच बातें कही पाँच पछतावे…जो शायद हमारे भी होंगे। मरने से पहले लोगों के पाँच पछतावे: 1. काश मैं वो ज़िंदगी जी पाता जो मैं चाहता था, वो नहीं जो दुनिया मुझसे चाहती थी। 2. काश मैंने इतना काम न किया होता, थोड़ा वक्त अपने लिए भी निकाला होता। 3. काश मैंने अपने दिल की बात खुलकर कही होती, उसे भीतर दबाकर नहीं रखा होता। 4. काश मैंने अपने परिवार और दोस्तों के लिए और वक्त निकाला होता। 5. काश मैंने वो किया होता, जिससे मैं सच में खुश होता। जब मैंने ये पढ़ा, तो दिल जैसे रुक गया…क्योंकि ये सिर्फ़ एक किताब नहीं थी-ये हम सबकी ज़िंदगी का आईना थी। क्योंकि हम भी तो यही करते हैं ना? हर दिन कहते हैं-एक दिन मैं गाना गाऊँगा…..एक दिन मैं योगा शुरू करूँगा…एक दिन दुनिया घूमूँगा…एक दिन माँ के साथ पूरा दिन बिताऊँगा…एक दिन मैं खुद के लिए जियूँगा…” पर क्या हम कभी रुके हैं ये सोचने के लिए कि कितने ‘एक दिन’ बचे हैं हमारे पास? अ...

खुद से युद्ध

सुबह होती है।  अलार्म बजता है। मन में पहला सवाल उठता है -“6 बजे उठूँ या 6:30 पर?” दिन की शुरुआत भी अपने भीतर, अपनेआप से होने वाली बातचीत से होती है। फिर यही बातचीत पूरे दिन चलती रहती है — “आज से डाइटिंग शुरू कर दूँ या कल से?” “सच बोलूँ या थोड़ी बात छिपा लूँ?” “बॉस से छुट्टी माँग लूँ या टाल दूँ?” “जिसने बुरा बोला, उसे जवाब दूँ या चुप रह जाऊँ? हर मिनट, हर सेकंड —ईश्वर हमें एक चुनाव दे रहे हैं। Choice A या Choice B. और यही हमारा हर निर्णय हमारे कर्मों को आकार दे रहा है। और वही कर्म, हमारा भाग्य बना रहे हैं । यही है—विचार मंथन। हमारे भीतर हर पल दो शक्तियाँ लड़ती रहती हैं —देवता और असुर। प्रकाश और अंधकार। शांति और क्रोध।क्षमा और बदला। किसी ने हमें अपमानित किया —असुर आवाज़ देता है: “उससे बदला लो! उसे सबक सिखाओ!”  देवता भीतर धीरे से फुसफुसाते हैं: “छोड़ दो, मत लड़ो । तुम इन बातों के लिए नहीं बने हो “ और हर बार जब हम निर्णय लेते हैं -हम या तो अपने अंदर के देव को मजबूत करते हैं, या असुर को। यही है असली संग्राम-जो हमारे भीतर है, जिसे हम रोज़ लड़ते हैं । समुद्र मंथन में विष भी निकला था औ...