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कठिन जीवन

आज के मरीज़ को देखकर अक्सर लगता है कि बीमारी उसके शरीर में नहीं, बल्कि उसकी भूमिकाओं में है। सुबह से लेकर रात तक वह कई किरदारों में बंटा रहता है। एक ही इंसान पिता भी है, बेटा भी, पति भी, नौकरीपेशा भी और समाज का जिम्मेदार सदस्य भी भूमिकाएँ नई नहीं हैं, इंसान हमेशा से इन्हें निभाता आया है। लेकिन फर्क यह है कि पहले इन भूमिकाओं की गति धीमी थी, सीमाएँ स्पष्ट थीं और अपेक्षाएँ सीमित। आज वही भूमिकाएँ विज्ञान और तकनीक की रफ्तार में इतनी तेज़ हो चुकी हैं कि मन और शरीर उस बोझ को झेल ही नहीं पा रहे। पुराने समय के समाज की एक खासियत थी - लोगों को सीमाओं का ज्ञान था,ये भी कह सकते हैं,कम एक्सप्लोर किया था । दिन का काम दिन में ही सिमट जाता था, रात विश्राम के लिए होती थी। गाँव का दायरा छोटा था, रिश्तों की अपेक्षाएँ तय थीं। तुलना बहुत कम थी और जीवन का तालमेल एक निश्चित लय में चलता था। भूमिकाओं के बीच खाली जगह थी, जिससे मन और शरीर को संतुलन मिल जाता था। आज का समय उस खालीपन को निगल चुका है। ऑफिस घर तक पीछा करता है, ईमेल और व्हाट्सएप हर वक्त टोकते हैं। बच्चे माता–पिता से पहले से कहीं ज़्यादा उम्मीद करते हैं...

शिक्षा

"जिसे हम आज शिक्षा कहते हैं, वह वास्तव में शिक्षा है ही नहीं। आपके शिक्षक आपको सिर्फ परीक्षा पास करने के लिए तैयार करते हैं, लेकिन वे आपको जीवन जीने के बारे में नहीं बताते  जबकि वही सबसे महत्वपूर्ण है; क्योंकि बहुत कम लोग जानते हैं कि वास्तव में कैसे जिया जाता है। हममें से अधिकांश लोग बस किसी तरह जीवित रहते हैं, घिसटते हुए चलते हैं, और इसलिए जीवन एक भयानक बोझ बन जाता है। वास्तव में जीने के लिए बहुत प्रेम, मौन के प्रति गहरी अनुभूति, सरलता, और साथ ही अनुभवों की समृद्धि की आवश्यकता होती है; इसके लिए एक ऐसे मन की ज़रूरत होती है जो स्पष्टता से सोच सके, जो किसी पूर्वाग्रह या अंधविश्वास, किसी आशा या भय से बंधा न हो। यही सब जीवन है और यदि आपको जीने के लिए शिक्षित नहीं किया जा रहा है, तो फिर ऐसी शिक्षा का कोई अर्थ नहीं। आप बहुत साफ-सुथरे हो सकते हैं, आपके आचरण अच्छे हो सकते हैं, आप सारी परीक्षाएं पास कर सकते हैं; लेकिन इन सतही बातों को जब समाज की पूरी संरचना ही ढह रही हो, तब प्राथमिक महत्व देना ऐसा है जैसे कोई अपने नाखून साफ और चमका रहा हो जबकि उसका घर जल रहा हो। देखिए, कोई भी आपको इन बातो...

प्रेमतत्व

प्रेम और लगाव  दोनों में एक महीन-सा फर्क होता है। प्रेम में हम किसी के लिए कुछ भी कर सकते हैं, सब कुछ दे सकते हैं  क्योंकि प्रेम में जो कुछ भी दिया जाता है, वो अधिकार की तरह लगता है, एहसान की तरह नहीं। क्योंकि प्रेम में देना अधिकार बन जाता है, एक स्वाभाविक प्रवृति, लेकिन जब कोई सिर्फ इंसानियत के नाते कुछ करता है  वहाँ प्रेम नहीं होता, न कोई गहराई, न कोई दावा। वहाँ केवल एक मानवीय संवेदना होती है, तब वो एक एहसान होता है। उस संवेदना को पहचानना, उसका आदर करना और उसे याद रखना  यही सच्ची एहसानमंदी है। ऐसे रिश्तों में हम चाहें भी तो कोई दावा नहीं कर सकते। न वहाँ कोई अधिकार होता है, न उम्मीद की गुंजाइश। वहाँ हम केवल ‘मेहमान’ की तरह होते हैं  कुछ पल के लिए स्वागत तो होता है, लेकिन ठहरने का हक़ नहीं मिलता। इंसानियत रिश्तों को जन्म दे सकती है, लेकिन उन्हें गहराई नहीं देती  वो गहराई केवल प्रेम से आती है। प्रेम अधिकार देता है। इंसानियत सिर्फ़ उपस्थिति देती है। इसलिए रिश्तों में अपनी सीमाएं समझना और उन्हें स्वीकार करना बहुत ज़रूरी होता है। हर बार जो इमोशनल सपोर्ट मिलता है...

खुद की कीमत

अपने सिद्धांतों पर अडिग रहो — किसी को खुश करने की कीमत मत चुकाओ। किसी की जरूरत बन जाना गर्व की बात है, लेकिन उसे अपनी काबिलियत का प्रमाण मत समझो। किसी भी इंसान के जीवन में सबसे बड़ा धोखा तब होता है जब वह दूसरों को खुश करने की कोशिश में खुद से समझौता करने लगता है। हर इंसान को यह समझना ज़रूरी है कि प्रोफेशनलिज़्म का मतलब केवल काम करना नहीं होता, बल्कि अपने विचारों और सिद्धांतों पर टिके रहना होता है। यही असली ताकत है। जो बार-बार झुकता है, वह केवल कमजोर नहीं होता  वह धीरे-धीरे अदृश्य हो जाता है। खुशामद एक आसान रास्ता लगता है, पर उसकी मंज़िल अपमान होती है। शुरुआत में लोग आपकी विनम्रता को पसंद करेंगे, लेकिन जब उन्हें यह दिखेगा कि आप किसी भी हद तक झुक सकते हैं, तब वे आपसे सम्मान नहीं, नियंत्रण की उम्मीद करने लगते हैं। जो बार-बार दूसरों की हाँ में हाँ मिलाता है, वह अपनी ‘ना’ खो देता है। और जब एक इंसान अपनी असहमति जताने की ताकत खो देता है, तब वह केवल एक उपकरण बनकर रह जाता है  इस्तेमाल किया जाने वाला। जैसे-जैसे समय बीतता है, ऐसे लोगों को समझ में आता है कि उन्होंने खुद को खो दिया है — और...