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man ke rang hazaar...

  रे मन......... रे मन पथिक तू किस ओर चला.........कहाँ जा रहा है यूँ..........किसके लिए इतना व्याकुल है....वो जो दूर से तेरी ओर आ रहा है.....पर कौन जाने वो किस लिए आ रहा है और किसके लिए आ रहा है..........तू तो बावरा है, तुझे कैसे पता कि वो तेरे लिए आरहा है............वो तो अभी तुझसे बहुत दूर है...........पल पल ये दूरी घटती जा रहीहै............वो पास और पास आरहा है..............पर मुझे अभी भी वो ठीक से दिखायी नहीं दे रहा है........उसकी चाल में आकुलता तो है पर चेहरे के भाव नहीं दिखते कि वो मेरे लिए ही हैं............हाय क्या करूँ ???? अरे मन मेरे........तू सुन तो........उसे आने तो दे......उसे बताने तो दे अपने आने की वजह...........जा.......तुझसे क्या पूछूँ तू तो खुद ही चंचल है......पल भर में हवा के पंख पर सवार कहाँ कहाँ हो आता है..........तू क्या जाने मेरे सवालों की गंभीरता...........पर मैं क्या करूं ??? क्या मैं भी चल पडूँ ????? उसी ओर जिधर से वो मेरी ओर आता हुआ दिख रहाहै..........किससे पूछूं ???? दिल से !!!!! अपने भीतर झांक के दिल के कपाट खटखटाए..............वो तो अपने ही भीतर किसी...

man re............

. मन जब उद्विग्न हो तो ना जाने क्या क्या सोचने लगता है.रोटी और पैसे के सवालों से जूझना जीवन की सतत आकांक्षा है पर उसके अलावा भी तो हम हैं..क्या सिर्फ रोटी पैसा और मकान ही चाहिये जीने के लिये…यदि वो सब मिल गया तो फिर क्या करें??? …कैसे जियें? क्या इतना काफी है जीने के लिये ? संवेदना किस हद तक सूनी हो सकती है.?.और फिर उस संवेदना को पकड़ना भी कौन चाहता है..? कितनी महत्वपूर्ण है वो संवेदना..? क्या हम संवेदनशील हैं…? क्या उगता सूरज देखा है आपने..और फिर डूबता भी देखा ही होगा .. क्या कोई अन्तर पाया..?? दोनों लाल ही होते हैं ना… आकाश वैसा ही दिखता है गुलाबी… चलिये फिर ध्यान से देखें उन रंगो को .. मै कविता नहीं जानता ..कुछ लिखा है..आप भी पढ़ लें… (1) बदलते समय और भटकते मूल्यों के बीच , धँस गया हूँ , दूसरों की क्या कहूँ, खुद को ही लगता है कि, फँस गया हूँ. (2) समय के अनवरत बढ़ते चक्र को थामने की कोशिश बेमानी है, पर जीवन के इस रास्ते पर अब चलने में हैरानी है.. (3) दीवार अब खिड़की से उजाले के बाबत सवाल पूछ्ती है आग अब जलने के लिये मशाल ढूंढती है. (4) टेड़ा-मेड़ा,भारी-भरकम कैसा भी हो , पर है...

आधुनिक शिक्षा प्रणाली

आज की आधुनिक शिक्षा और गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा हमारे रहने, जीने, और सोचने का ढंग बदलती आज की आधुनिक शिक्षा प्रणाली कितनी सार्थक व जीवनउपयोगी है हम भलीभाँती जानते है गाँधीजी ने "हिन्द स्वराज" (पुस्तिका) में लिखा था "अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है । जो लोग अंग्रेजी पढे हुए है, उनकी संतानों को नीति ज्ञान, मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस ्तान की दूसरी भाषा सिखानी चाहिए "अन्य प्राचीन धर्मो की तरह वैदिक दर्शन की भी यह मान्यता है कि प्रकृति प्राणधारा से स्पन्दित है। सम्पूर्ण चराचर जगत अर्थात् पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, आग, वायु, जल, वनस्पति और जीव-जंतु सब में दैवत्व की धारा प्रवाहित है। वैदिक दर्शन ने हमें सम्पूर्ण अस्तित्व के प्रति गहन श्रद्धा और स्त्रेह से जीना सिखाया। इस दृष्टि का इतना अधिक प्रभाव था कि जब प्रकृ ति की गोद में स्थित एक आश्रम में पली-पोसी कालीदास की "शकुन्तला अपने पति दुष्यन्त से मिलने के लिए शहर जाने लगी तो उसकी जुदाई से वे पौधे जिन्हें उसने सींचा, फूल जिनकी उसने देखभाल की, मृग जिन्हें उसने पोçष्ात किया आदि ...